अर्थशास्त्र

by A Nagraj

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  • जागृतिक्रम, जागृति में ही संपूर्ण पद, अवस्था, स्थिति गति को देखा जाता है। उदाहरण के रूप में प्रत्येक नर-नारी सहअस्तित्व में किसी पद और अवस्था में संपूर्ण जड़-चैतन्य प्रकृति का पहचान होना पाया जाता है इनके स्थिति गति को जागृति के आधार पर मानवत्व सहित व्यवस्था और समग्र व्यवस्था में भागीदारी के रूप में देखा जाता है।
  • मानव ही दृष्टापद में है एवं इसे वैभवित, प्रमाणित, व्यवहृत करने योग्य इकाई है। अस्तु मानव ही कर्ता-भोक्ता होना भी पाया जाता है।
  • मानव ही प्रत्येक इकाई में अनन्त कोणों का दृष्टा; एक से अधिक इकाईयों के दिशा, काल और देश का दृष्टा, प्रत्येक एक में स्थिति गति का दृष्टा; प्रत्येक इकाई में अविभाज्य रूप में वर्तमानित रूप, गुण, स्वभाव, धर्म रूपी आयामों का दृष्टा; व्यक्ति, परिवार, ग्राम, देश, राष्ट्र और विश्व परिवार रूपी परिप्रेक्ष्यों का दृष्टा होना अस्तित्वमूलक मानव केन्द्रित चिंतन सहित सहअस्तित्व रूपी शाश्वत क्रियाकलाप क्रम में, परमाणु में विकास गठनपूर्णता, उसकी निरंतरता, चैतन्य पद में संक्रमण जीवनपद, जीवनी क्रम, जीवन जागृति क्रम, जागृति, मानवीयतापूर्ण मानव परंपरा और जीवन जागृति पूर्णता फलस्वरूप देव मानव, दिव्य मानव पदों का दृष्टा, कर्ता, भोक्ता होना पाया जाता है। इसी क्रम में स्पष्ट किए गये मानव पद में क्रियापूर्णता और दिव्यमानव पद में आचरण पूर्णता और उसकी निरंतरता का होना पाया जाता है।

इस विधि से अस्तित्वमूलक मानव केन्द्रित चिंतन की अवधारणाएं स्वयं स्पष्ट करता है कि पूर्वावर्ती दोनों विचारधारा से समाधान के अर्थ में भिन्न होना स्पष्ट है। अवधारणा का तात्पर्य ही अध्ययनपूर्वक धारणा के अनुकूल स्वीकृतियों से है। मानव की धारणा, प्रत्येक मानव में सुख, शांति, संतोष और आनन्द के अर्थ में नित्य वर्तमान होना पाया जाता है। किसी भी मानव का परीक्षण करने पर यह पाया जाता है कि सुख, शांति, संतोष, आनन्द के आशा अपेक्षा में ही संपूर्ण कार्यकलाप विन्यासों को करता है। परीक्षण क्रम में 5 ज्ञानेन्द्रियों से जो कुछ भी पहचानता है, पहचानने के मूल में प्रवृत्ति है वह सुखापेक्षा ही दिखाई पड़ती है। संपूर्ण मानव संपूर्ण प्रकार के अध्ययनों को सुखापेक्षा से ही किया रहता है। प्रत्येक मानव से सम्पादित होने वाली संपूर्ण अभिव्यक्ति,