अर्थशास्त्र

by A Nagraj

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और चरितार्थता स्पष्ट है। यह अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिंतन और सहअस्तित्ववादी विश्व दृष्टिकोणों के आधार पर स्पष्ट हो जाता है।

स्पष्टता के लिए मानवकुल आदिकाल से तरसता ही रहा है। प्रयास भी स्पष्टता के क्रम में अभिप्रेत रहा है। मूल मान्यताएं समुदाय और वर्ग केन्द्रित होने के आधार पर तथा दूसरी ओर रहस्य और वस्तुओं के आधार पर जितने भी सोचा गया, प्रयत्न किया गया, प्रयोग किया गया, वर्ग और समुदाय सीमा में ही हितों को सोचना बना। इसलिए सर्वशुभ चाहते हुए वह घटित होना संभव नहीं हुआ। इन तथ्यों का अवलोकन करने पर विकल्प की आवश्यकता और अनिवार्यता स्वाभाविक रूप में स्वीकृत होता है अन्यथा भ्रमित रहना ही होगा।

ऊपर वर्णित घटनाओं का वर्णन, आंकलन और विश्लेषण से यह स्पष्ट हो चुका है कि वस्तु केन्द्रित विश्व दृष्टिकोण और रहस्यमय ईश्वर केन्द्रित विश्व दृष्टिकोण से मानव का अध्ययन मानव के लिए तृप्तिदायक अथवा समाधानपूर्ण विधि से संपन्न नहीं हो पाया इसलिए मानव के लिए योजित शिक्षा संस्कार और शिक्षा संस्कार को समृद्ध बनाने के लिए प्रबंध-निबंध, पाठ-पाठ्यक्रम, साहित्य, कला सभी मिलकर भी अधूरा ही रह गया। इस मायने में कि सार्वभौम शुभ सर्व सुलभ होने में नहीं आया। साथ ही यह तथ्य अपने आप में अवश्य ही उपादेयी रहा है कि उक्त दोनों प्रकार के विश्व दृष्टिकोण, उससे संबंधित सभी प्रयास अस्तित्वमूलक मानव केन्द्रित चिंतन के पहले मानव परंपरा में परिलक्षित होना अवश्यंभावी रहा। अस्तु इस बात पर हम सर्वमानव सहमत हो सकते हैं कि बीता हुआ सभी परिवर्तनों का समीक्षा फलनों के साथ ही विकल्प की ओर ध्यानाकर्षण होना संभव, आवश्यक और अनिवार्य है।

अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिंतन का मूल अवधारणाएं निम्नलिखित हैं :-

  • अस्तित्व नित्य वर्तमान है। वर्तमान का तात्पर्य होने-रहने से है।
  • अस्तित्व में मानव अविभाज्य है। अविभाज्यता का तात्पर्य मानवत्व सहित होने-रहने के रूप में कार्यरत रहने से है।

अस्तित्व सहित ही संपूर्ण पद, अवस्था, दिशा, देश, कोण, आयाम, परिप्रेक्ष्य स्थिति-गति का होना पाया जाता है। इसी के साथ सहअस्तित्व में ही विकास क्रम, विकास,