अर्थशास्त्र
by A Nagraj
हर व्यक्ति का गति स्पष्ट हो जाता है। दूसरा विभिन्न कार्यों के अनुसार गति विविधता का होना भी देखा गया है। जैसे कृषि कार्य की गति, पशुपालन की गति, ग्राम शिल्प की गति, हस्तकला की गति, कुटीर उद्योग की गति, गृह निर्माण में गति, अलंकार द्रव्यों को निर्मित करने में गति, यंत्र रचनाओं में गति अलग अलग होना भी देखा गया है। मानव का ही कार्य गति मूलत: परिमापन का आधार है। इसी के साथ उत्पादन का तादात सामने आता है। हर उत्पादन सदुपयोगिता में, प्रयोजनशीलता में आवर्तनशील होता है। फलस्वरूप मूल्यांकन सुलभ होता है। इसी क्रम में अर्थात् आवर्तनशीलता क्रम में होने वाली तृप्ति क्रम में उसकी निरंतरता की प्रवृत्ति मानव में उदय होना स्वाभाविक है, क्योंकि मानव में जीवन शक्तियाँ अक्षय रूप में विद्यमान है ही। इसी विधि से हर वस्तु का उत्पादन और तृप्ति उसकी निरंतरता और सम्भावना समीचीन रहता ही है।
जितने समय में जो वस्तु जिस तकनीकी मानसिकता पूर्वक हस्तलाघव सहित परिमापित रूप में स्पष्ट हो गई, उसे एक उत्पादन अथवा एक श्रम के रूप में पहचानना सहज है। उसी के समान कार्य (श्रम) के साथ विनिमय होना स्वाभाविक है। ऐसी हर वस्तु का मात्रा और गुण के साथ श्रम परिमापन मानव सहज उपलब्धि है और सुगम है। इसके साथ एक परिशीलन वस्तु अवश्य ही मानव के मन में आता है क्या प्रत्येक मानव का हस्तलाघव, निपुणता, कुशलता, पाण्डित्य एक सा हो पाता है? इसका उत्तर यही मिलता है कि परिवार में जितने भी समझदार व्यक्ति रहते हैं उनसे वह लक्षित कार्य पूरा होता ही रहता है। परिवार में एक दिन एक आदमी उत्पादन में कम पूरक हुआ, दूसरे दिन ज्यादा पूरक हुआ, इसकी नापतौल की आवश्यकता नहीं बन पाती। वस्तु उत्पादन कार्य को सीखने-करने में ज्यादा कम रहता है यही प्रधान मुद्दा है। किसी वस्तु के उत्पादन में अकेले से कुछ होता ही नहीं है। एक से अधिक लोगों के बीच में ही किसी वस्तु का उत्पादन संभव है। मूल्यांकन के लिए एक से अधिक व्यक्तियों का होना ही है। विनिमय के लिए और व्यक्ति परिवार की आवश्यकता ही है। व्यक्ति के सीमा में कोई उत्पादन का निर्णय नहीं होता। इस बात को पहले से ही स्पष्ट किया है हर मानव किसी न किसी मानवीयतापूर्ण परिवार में प्रमाणित होगा। हर मानव बहुआयामी अभिव्यक्ति है इसलिए उत्पादन कार्य एक आयाम है। परिवार में लक्ष्य उत्पाद है न कि श्रम ज्यादा कम।