अर्थशास्त्र
by A Nagraj
व्यवस्था एवं समग्र व्यवस्था में भागीदारी को प्रमाणित कर सकता है। मानव ही जीवन जागृति के प्रमाणों को दृष्टा, कर्ता, भोक्ता विधियों से प्रमाणित करता है।
उपयोगिता को हम पहले से ही स्पष्ट किए हैं। यह क्रम से न्याय, धर्म और सत्य प्रधानता सहज प्रकाशन है। इस के आधार पर परिवार मानव, व्यवस्था मानव और जागृतिपूर्ण मानव (प्रमाणिक मानव) के रूप में अपने को प्रमाणित करने की गति में तन, मन, धन का उपयोग, सदुपयोग और प्रयोजनशील होने का तथ्य अभिहित है। इस प्रकार आवर्तनशीलता का आधार और सूत्र व्यवस्था ही है और व्यवस्था सूत्र के क्रम में ही वस्तुओं का सदुपयोग होना सहज है।
सदुपयोगिता क्रम और विधि से ही सम्पूर्ण मानव में आवश्यकताएँ संयत होते हैं, समृद्ध होने की संभावना बढ़ती है। फलत: उत्पादन कार्य करने के साधनों की वृद्धि एवं समय घटने की संभावना भी जुड़ी रहती है। क्योंकि आवश्यकता से अधिक साधन (समान्याकाँक्षा, महत्वाकाँक्षा के) एक पीढ़ी दूसरे पीढ़ी के लिए अर्पित करता रहेगा। यह मानव सहज कीर्ति है। इसी क्रम में सदुपयोगिता विधि से साधन अधिक होने के आधार पर ही समृद्धि सर्वसुलभ होना सहज है। समृद्धि के आधार पर ही उत्पादन मात्रा नियंत्रित होना भी सहज है। गुणवत्ता की ओर मानव का स्वाभाविक रुप से ध्यान होना पाया जाता है। क्योंकि हर मानव समृद्धि कल्पना के साथ ही गुणवत्ता की ओर परिकल्पना तो कर रहा है। जबकि अभी परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था इस धरती पर प्रचलित नहीं हुआ। इसके बावजूद मानव परोपकारी नेतृत्वशील व्यक्तियों को अधिकाधिक साधनों के साथ (भले ही राक्षसीयता से क्यों न हो एकत्रित किया हुआ) प्रयुक्त होता आंकलित हुआ।
परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था विधि में हर परिवार समृद्ध होना स्वाभाविक है। यह भी अभी तक स्पष्ट हो चुका है कि जागृत मानवों का समुदाय ही परिवार मानव और विश्व परिवार मानव के रूप में जीने में समर्थ होता है।
वस्तु मूल्यांकन के लिए मानव का शक्ति नियोजन, समय और साधन सहित प्राकृतिक ऐश्वर्य की समीचीनता का योगफल, इसमें शरीर का संयोजन निपुणता, कुशलतापूर्ण मानस और पांडित्य के साथ कार्य करना भी एक आवश्यकता है। जैसे एक आदमी हल चलाने में गति, पत्थर फोड़ने में गति, घर बनाने में गति, इसी प्रकार हर क्रियाकलापों में