अर्थशास्त्र
by A Nagraj
ध्यानाकर्षण का बिन्दुएं रही। मुख्यत: इस क्रियाकलाप में निष्कर्ष और स्थिरता, फलस्वरूप सार्वभौमता और उसकी अक्षुण्णता में प्रश्न चिन्ह बनने की बिन्दुओं में (1) सहअस्तित्व नित्य वर्तमान होने में स्वीकृति स्पष्ट नहीं हो पाना फलस्वरूप भ्रमित रहना। (2) जीवन और जीवन ज्ञान संबंधी शोध कार्य सम्पन्न नहीं हो पाना फलस्वरूप जीवन (स्वयं) के संबंध में भ्रमित रहना। फलस्वरूप स्थिर और निश्चयता से वंचित रहना पाया गया। जबकि अस्तित्व स्थिर, विकास और जागृति अस्तित्व में ही निश्चित है।
भ्रमित होने के फलस्वरूप मार-पीट, वध-विध्वंसपूर्वक स्व-अस्तित्व और वर्चस्व बनाने का प्रयास मानव कर बैठा। इस अपराधिक विचारों कार्यों को भुलावा देने के लिए इतना ही इनके परिणामों में स्मृतियों को विस्मृत करने के लिए सुविधा-संग्रह, भोग-विलास आवश्यकता के रूप में सम्मोहन पूर्वक स्वीकृत हुई। इसे बनाये रखने के लिए शोषण, द्रोह, विद्रोह पुन: युद्ध विध्वंस का कार्यक्रम बनता ही गया। इन्हीं सब प्रमाणों के आधार पर जीव चेतनावश सर्वाधिक मानव संख्या पशु मानव-राक्षस मानव के कोटि में गण्य होते ही रहे। पशु मानव के साथ राक्षस मानव शोषण क्रियाओं को विविध आयामों में जारी रखा। वस्तु व्यापार, युद्ध व्यापार, धर्म व्यापार, ज्ञान व्यापार इन्हीं के अंगभूत सभी व्यापार शाखाएं भ्रमित मानव को स्वीकृति के लिए विवश करते ही रहे स्वयम् भ्रमित रहना स्वीकार नहीं हो पाया। मानव तो अब बरबादी को आबादी की दुहाई देते हुए अपने ढंग से पतली गली बना लिया, साथ-साथ धरती का शक्ल बदल गई। विकृत स्वरूप की ओर ढल चुकी। इसके आधार पर मानव को पुनर्विचार करने की आवश्यकता भी समीचीन रही ही। अतएव स्थिरता-निश्चयता के आधार पर ही अस्तित्व सहज सहअस्तित्व में ही प्रत्येक एक का वैभव व्यवस्था और समग्र व्यवस्था में भागीदारी का अध्ययन सूत्र मानव कुल में प्रकाशित होना एक आवश्कता रही क्योंकि मानव कुल स्व नियंत्रित दूसरी भाषा से स्व-स्वीकृति पूर्वक व्यवस्था में होना अथवा भ्रमित होना देखा गया है। स्वीकृत होने का क्रम सच्चाई की ओर अपेक्षा के रूप में बना ही रहता है। क्योंकि हर भ्रमित व्यक्ति भी सच्चाई की दुहाई देता ही है। इसी आधार पर सच्चाई सार्वभौम कसौटियों के साथ स्वीकृत होने की सम्भावना समीचीन है ही।