मानवीय संविधान

by A Nagraj

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जागृत मानव सहज कार्य-व्यवहार व्याख्या ही सर्वतोमुखी समाधान प्रमाण और वर्तमान परंपरा है।

जागृत मानव परंपरा ही अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था, विधि-विधान नीति सहज स्थिति गति है।

“समुदाय समाज नहीं, समाज समुदाय नहीं ”

(हर समुदाय दूसरे समुदाय से मतभेद-बैर-विरोध पूर्वक ही समुदाय अपने में पहचान है।)

अखण्ड समाज व्यवस्था में भागीदारी ही सार्वभौमता और न्याय सुरक्षा है।

न्याय-सुरक्षा

  • सर्व मानव, चारों अवस्थाओं की परस्परता में होना दृष्टव्य है। यही सहअस्तित्व सहज नित्य प्रभावी, प्रमाण व वर्तमान है।
  • हर अवस्था में वैभव रत हर एक-एक अपने ‘त्व’ व्यवस्था, समग्र व्यवस्था में भागीदारी सहित उपयोगिता, पूरकता, उदात्तीकरण सहज प्रमाण व वर्तमान है।
  • सहअस्तित्व में पदार्थावस्था परिणामानुषंगीय यथास्थिति सहज क्रिया के रूप में, प्राणावस्था बीजानुषंगीय विधि से यथास्थिति में होना, जीवावस्था सहज वैभव वंशानुषंगीय विधि रूप में होना और ज्ञानावस्था में मानव, मानव चेतना मूल्य शिक्षा संस्कारानुषंगीय व्यवस्था अर्थात् ज्ञान-विवेक-विज्ञान सम्पन्नता पूर्वक व्यवस्था सहज प्रमाण व वर्तमान है। अस्तु, जागृति पूर्वक अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था यही समग्र व्यवस्था में भागीदारी के रूप में प्रमाणित होता है। मानव परंपरा में 'न्याय’ सदा-सदा समीचीन है।

7.2 (5) न्याय का स्वरूप

मानव संबंधों में निहित मूल्यों का निर्वाह, मूल्यांकन, परस्परता में समाधान, समृद्धि, अभय (वर्तमान में विश्वास), सहअस्तित्व सहज आचरण प्रमाण और निरंतरता ही वैभव न्याय सहज स्वरूप है।