मानवीय संविधान

by A Nagraj

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Page 91
  • सहअस्तित्व रूपी अस्तित्व दर्शन ज्ञान

जीवन ज्ञान सम्पूर्ण ज्ञान

मानवीयता पूर्ण आचरण ज्ञान

अनुभव मूलक विधि से अभ्युदय के अर्थ में प्रमाणित होना ही सत्य प्रमाण है। यही विवेक-विज्ञान सम्मत विधि से सर्वतोमुखी समाधान ही मानव धर्म का प्रमाण, अखण्ड समाज सूत्र के अर्थ में सार्वभौम व्यवस्था सहज परंपरा ही संबंध, मूल्य, मूल्यांकन विधि से न्याय सुरक्षा प्रमाणित होता है। यही जागृत परंपरा का वैभव है।

7.2 (4) न्याय-सुरक्षा

  • जागृत मानव परंपरा में ही सर्वतोमुखी न्याय सुरक्षा प्रमाणित होता है। सहअस्तित्व रूपी अस्तित्व में न्याय जागृति सहज नित्य वर्तमान है। यही जागृत होने, ज्ञान शक्ति संपन्न होने का प्रमाण और सार्वभौम व्यवस्था में प्रमाणित होने का सूत्र, दृष्टा पद प्रतिष्ठा पीढ़ी से पीढ़ी में होना परंपरा है।
  • दृष्टा पद में जागृत मानव ही है। दृष्टा पद में समझदारी (ज्ञान, विवेक, विज्ञान सम्पन्नता) जागृति दृष्टा पद सहज प्रमाण परंपरा है।
  • दृष्टा पद में ही मानव में, से, के लिए सम्पूर्ण पदार्थावस्था मृदा, पाषाण, मणि, धातुएं परिणामानुगामी विधि से यथा स्थिति में पूरकता-उपयोगिता उदात्तीकरण क्रियाकलाप में दृष्टव्य है।
  • सम्पूर्ण प्राणावस्था में क्रियाकलाप यौगिक विधि सहित रसायन द्रव्य, प्राणसूत्र रचना विधि सम्पन्नता, प्राण कोशा से उन प्रजातियों के रूप में बीज-वृक्ष विधि से परंपरा सम्पन्न रचनायें होना दृष्टव्य है।
  • सम्पूर्ण जीव-संसार अनेक प्रजातियों के रूप में सप्त धातु से सम्पन्न शरीर रचना और समृद्ध मेधस सम्पन्नता युक्त शरीर रचना और जीने की आशा सहित जीवन का संयुक्त रूप में होना दृष्टव्य है। जिन जीवों में मानव संकेत ग्रहण होता है यह जीवन का पहचान है।

सम्पूर्ण मानव ज्ञान सम्पन्नता में होना हर जागृत मानव में, से, के लिये दृष्टव्य-ज्ञातव्य कर्त्तव्य बोध होना पाया जाता है। फलस्वरूप न्याय व सुरक्षा सर्वसुलभ होता है।