मानवीय संविधान
by A Nagraj
भाग – पाँच
जागृत मानव
जागृत मानव
नियम, नियंत्रण, संतुलन, न्याय, सर्वतोमुखी समाधान, सहअस्तित्व रूपी परम सत्य में, से, के लिए अर्थात् जागृति पूर्वक मानव मन:स्वस्थता का प्रमाण और मनाकार को अर्थात् आवास, आहार, अलंकार, दूरश्रवण, दूरदर्शन, दूरगमन संबंधी वस्तुओं, यंत्रों-उपकरणों के रूप में साकार करता है। मन:स्वस्थता ही मानव त्व है।
जागृत मानव ही मानवत्व सहित व्यवस्था, समग्र व्यवस्था में भागीदारी करता है।
जागृत मानव ही निश्चित फल परिणाम के लिए निश्चित कर्म, कार्यक्रम, व्यवहार करता है एवं निश्चित फलों का उपयोग, सदुपयोग, प्रयोजनों के अर्थ में अर्पित करने प्रस्तुत रहता है।
जागृत मानव परिवार प्रवृत्ति
प्रत्येक जागृत मानव परिवार में एक दूसरे को संबंधों के अर्थ में संबोधन कार्य, कर्त्तव्य, दायित्व, मूल्यों का निर्वाह, परिवार सहज प्रमाण सहित समग्र व्यवस्था में भागीदारी के रूप में अपना पहचान प्रस्तुत किए रहते हैं। ऐसे एक दूसरे के सभी प्रकार के पहचानों को प्रमाण सहित सत्यापित करते हैं।
परिवार जनों के रूप में संबोधन व्यवहार होना अपनत्व का पहला चरण है। इनमें सामंजस्य, संगीत रूप में एक दूसरे को समझते हुए जीना ही परिवार वैभव ही स्वराज्य सहज स्वरूप लोकव्यापीकरण विधि से दश सोपानीय वैभव है।
धन उत्पादित वस्तुओं के रूप में, मन जानने, मानने, पहचानने, निर्वाह करने के रूप में है। तन स्वस्थ शरीर के रूप में है।
संस्कार, क्रियापूर्णता अर्थात् सर्वतोमुखी समाधान और परंपरा सहज निरंतरता से तथा आचरणपूर्णता अर्थात् सहअस्तित्व में, से, के लिए अनुभव प्रमाण परंपरा से है, यही जागृति है।