मानवीय संविधान

by A Nagraj

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  • सभी असाध्य संकटों को) दूर कर दिया अथवा उन मानवों ने दूर कर दिया। ऐसे मानव को विभिन्न समुदायों ने विभिन्न संकटों के दूर होने के आधार पर उन्हें अवतार मान लिया। इस विधि से भी विभिन्न समुदायों में विभिन्न अवतारों को मानना और उनके प्रति दृढ़ता अथवा हठवादिता को स्थापित कर लेना और अन्य के प्रति शंका, विरोध, द्रोह, विद्रोह, घृणा, उपेक्षा, शोषण और युद्ध करने के क्रम में चले आए।

अवतारों, ईश्वर प्रतिनिधि अथवा महापुरुषों के नाम से जो कुछ भी वचन वाङ्गमय उपदेश प्राप्त हुआ है उसे उन-उन समुदायों ने संविधान मान लिया अथवा संविधान का आधार मान लिया। उल्लेखनीय बात यह है कि मूलत: सभी समुदाय अपने अपने संविधान को परम मानते हैं, साथ ही इसे ईश्वर वचन मानते हैं।

इसे हम स्पष्ट रूप में आज भी देख सकते हैं।

पूर्ववर्ती आधार

  • आदिकाल से मानव, विभिन्न भौगोलिक परिस्थितियों में जूझता हुआ, एक दूसरे को अथवा एक परिवार दूसरे परिवार को पहचानने के लिए नस्ल को आधार मान लिया। यह अधिकतर मुख मुद्रा पर मान लिया गया। जिससे अनेक समुदायों का अंतर्विरोध सहित पहचान हुआ।
  • पुन: विभिन्न भौगोलिक परिस्थितियों के आधार पर ही मानव शरीर का रंग गोरा, काला, भूरा आदि नामों से स्वीकारा गया। यह प्रधानत: चमड़े की रस क्रिया और भौगोलिक परिस्थितियों के संयोग से और वंशानुषंगीय विधि से होना पाया जाता है। इसी के आधार पर परस्पर पहचान निर्भर हुआ। इससे तीव्रतम अंतर्विरोध सहित अनेक समस्या और प्रश्न चिन्ह बनता ही गया। अपने परायों की दीवाल और दृढ़ हुई।

पूजा-पाठ, प्रार्थना, अभ्यास, आराधना व साधनाओं के आधार पर समुदायों को पहचानने का प्रयास किया गया। जिसमें अनेक मत, संप्रदाय, पंथ परंपराएं देखने को मिलीं। जाति, रंग, नस्ल, परंपराएं पहले से ही रही। इस प्रकार और भी समुदायों का उदय हुआ जिसमें अंतर्विरोध और सुदृढ़ हुआ। प्रश्न चिन्हों की संख्या बढ़ी। ये