अध्यात्मवाद

by A Nagraj

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पूर्ववर्ती दोनों विचार धाराओं के अनुसार एक सार्वभौम दिशा, मार्ग स्पष्ट नहीं हुई, जबकि आवश्यकता बलवती होती आई है।

अस्तित्वमूलक मानव केन्द्रित चिन्तन धारा विधि से सम्पूर्ण अस्तित्व के रूप में अनुभव करने के फलस्वरूप बन्धन का स्वरूप, कारण तथा मोक्ष (मुक्ति) की आवश्यकता उसके लिये सहज और सार्वभौम उपाय अध्ययन गम्य होता है। यही अखण्ड समाज और सार्वभौम व्यवस्था का आधार सूत्र और व्याख्या भी जागृत मानव का ही आचरण है।

इस अध्याय के आरंभ से ही ‘बन्धन’ और ‘मोक्ष’ नाम के मुद्दे पर छः (6) प्रश्न है :-

1. ‘वस्तु’ के रूप में कौन सी चीज है जो बन्धन में पड़ा रहता है?

2. ‘वस्तु’ के रूप में कौन सी चीज है जो बांध कर रखती है?

3. ‘वस्तु’ के रूप में कौन सी चीज है जो मुक्ति दिला देता है?

4. ‘वस्तु’ के रूप में ऊपर कहे गये ‘तीनों’ कहाँ है?

5. क्यों ऐसे बन्धन कृत्य को करता है?

6. जो बन्धन था, मुक्ति पाने के बाद उसका प्रयोजन क्या है?

इसी के साथ-साथ ‘वस्तु’ क्या है? ‘अवस्तु’ क्या है? यह अस्तित्व में कहाँ, कैसे और क्यों है? इन सबका सार्थक उत्तर मानव आदिकाल से ही ढूंढ़ता रहा है अथवा जब से आदर्शवाद का आरंभ हुआ है उसी समय से ही विविध प्रकार से प्रश्न-उत्तर होते रहे।

जागृति के अनन्तर यह देखा गया है अस्तित्व में ही अभिव्यक्ति है, दूसरे भाषा में अस्तित्व ही सम्पूर्ण अभिव्यक्ति है। सहअस्तित्व स्वयं अनन्त रचना के रूप व्यापक सत्ता में सम्पृक्त है। ऐसे रचनाओं में से एक रचना यह धरती है। इस धरती जैसी अनेक धरती हैं। इस धरती में जो चार अवस्थाएँ अभिव्यक्त हुई है ये अस्तित्व में थी ही, इसलिये इस धरती पर भी व्यक्त हुई। इस धरती में जो कुछ भी अभिव्यक्तियाँ समायी हुई हैं उनकी कार्य विधि, स्वरूप विधि, रचना विधि इसी