अध्यात्मवाद

by A Nagraj

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परंपरा से निकल नहीं पाया। इसीलिये मोक्ष किसी को समझ में आया है, नहीं आया है, इसको कहना अथवा निश्चय करना उक्त दोनों विधि से सम्भव नहीं हुआ।

‘वस्तु’ के रूप में बन्धनकारी वस्तु जिसका कार्यक्रम बन्धन में डालते रहना है, बन्धन में आने वाली वस्तु और बाँधने वाले के साथ इनका संयोग विधि स्पष्ट नहीं हो पाया। इसमें सदा-सदा तर्क और कल्पना का दोहराना, नवीनीकरण करने की संभावना बना ही रहा। इसलिये अवसरानुसार नवीनीकरण करते रहे। दूसरा यह भी है विभिन्न जलवायु में रहकर कल्पना सहज तर्क को विभिन्न विधि से प्रस्तुत किया। यह सब एक जगह में देखने सुनने की स्थिति में मानव अपने पुरुषार्थ से एक दूसरे देश, द्वीप पहुँच कर एक दूसरे का भाषा, विचारों को समझने की कोशिश किया।

अनेक समुदाय परिकल्पना और उसकी समीचीनता के मुद्दे पर समीक्षा के लिये, स्मरण के लिये इतिहास भी आवश्यक है। मानव इतिहास के अनुसार नस्ल-रंग के आधार पर समुदायों को पहचाना। इसके अनन्तर वस्तु संग्रह और विपन्नता के आधार पर समुदायों को पहचाना। उसके अनन्तर आजीविका के कार्यों के आधार पर समुदायों को पहचाना गया। उसके अनन्तर भाषा, देश और विभिन्न आस्थाओं के आधार पर समुदायों को पहचाना गया। अभी, इस दशक में देशों के अर्थ में विकसित, विकासशील और अविकसित के रूप में पहचाना जा रहा है। मानव के रूप में संग्रह, सुविधा, भोग, अतिभोग, बहुभोग, इसके विपरीत विपन्नता के रूप में अधिकांश समुदायों को पहचाना जाता है। जब कभी भी लड़ाई करना होता है तब परस्पर कट्टर पंथी जाति, मत, संप्रदाय और धर्म की दुहाई दी जाती है। सभी प्रकार के समुदाय वैचारिक मतभेदों, सविपरीत अथवा परस्पर प्रतिकूल मान्यताओं के रूप में गण्य है।

ऐसे पहचाने गये सभी समुदाय बंधन और मोक्ष की चर्चा अवश्य करते हैं। बंधन के कारण को स्पष्ट न कर पाना, मोक्ष को स्पष्ट न कर पाना और मोक्ष के लिये सार्वभौम उपाय का प्रतिपादन नहीं हो पाना यही मतभेद विभिन्न संस्कृति का आधार मानने का भ्रम जाल बन गया। इस बीसवीं शताब्दी के दसवें दशक तक