अध्यात्मवाद
by A Nagraj
प्रकाशन विधि से सर्वमानव में निहित संपूर्णता को समझने, कल्पना, विचार और इच्छाओं का गम्य स्थली दिखाई पड़ती है।
अस्तित्व ही रासायनिक-भौतिक ग्रह, गोल, ब्रम्हाण्डों के रूप में मानव सहज कल्पना, विचार, इच्छा सम्पन्न, संवेदनाओं सहित होना पाया जाता है। मानव (जीवन व शरीर का संयुक्त रूप) अभी तक जितने भी आयाम को प्रमाणित करना संभव हुआ है वह केवल रूप और गुण को ही आंकलन करके। उसके आधार पर वांछित यांत्रिकी परिकल्पना जो सकारात्मक है, दूरश्रवण, दूरदर्शन, दूरगमन विधि से और आहार-आवास-अलंकार-द्रव्यों के रूप में प्राप्तियाँ दिखाई पड़ती है। यह मानव का परिभाषा में से मनाकार को साकार करने वाले परिकल्पनाओं अथवा चित्रण के अनुरूप अथवा इच्छाओं के अनुरूप ये सब प्राप्त हैं। दूसरा पक्ष जो मानव के लिए नकारात्मक है, सामरिक यंत्र-तंत्रों, उपकरणों को जितने भी जखीरे के रूप में इकट्ठा किये, नैसर्गिक, भौगोलिक, ब्रह्माण्डीय संगीत में सदा-सदा हस्तेक्षप करने वाला है। इसी में हर समुदाय की संघर्षशील प्रवृत्ति का होना देखा गया है। इससे यह भी पता लग गया कि संघर्षशीलतावश ही मानव धरती का शक्ल बिगाड़ा है। फलस्वरूप धरती और धरती का वातावरण बदलना भी है जिसके आधार पर इस धरती पर रहने वाले मानव परंपरा का अस्तित्व रहेगी या नहीं रहेगी इस प्रश्न चिन्ह तक पहुँच चुके हैं। इस प्रश्न चिन्ह का सामान्य असर पूरे भूगोल पर ही दिखाई पड़ रही है। इसका विवरण आवश्यकीय स्थानों पर विस्तृत रूप में प्रस्तुत करेंगे।
चाहे आदर्शवादी विधि से हो अथवा भौतिकवादी विधि से हो मानव ने अभी तक जो यात्रा की है वह स्वस्थ जगह नहीं है। कल्पना और भ्रम के आधार पर ही आधारित रहना मुख्य रूप से देखा गया है। अस्तित्व में परमाणु में विकास नित्य प्रभावी है। अनुस्यूत क्रिया है। इसी क्रम में परमाणु में गठनपूर्णता एक अद्भूत संक्रमणिक घटना के रूप में होना अथवा मौलिक परिवर्तन के रूप में होना जीवन नित्य वर्तमान रहना देखा गया है। ऐसे गठनपूर्ण परमाणु जीवन के रूप में चैतन्य इकाई सहज रूप में नित्य विद्यमान रहना देखा गया है। साथ में सहअस्तित्व नित्य प्रकटन है, वर्तमान है। ऐसे जीवन ही अपने में अक्षय शक्ति, अक्षय बल