अध्यात्मवाद
by A Nagraj
है। इसे भोगने के लिए विवश है। इसी प्रकार विकिरणीय क्रियाकलापों के विसर्जित परिणामों से हवा, धरती और जल प्रदूषण की तकलीफ, अर्थात् जलवायु, धरती प्रदूषण की अस्वीकृतियाँ मानव में धीरे-धीरे बढ़ रही है। ऐसे संकट के पराकाष्ठा में मानव से ही इसका समाधान निकलना स्वाभाविक है। शरीर का दृष्टा भी जीवन ही है इसलिये जागृत मानव ही हर समस्या का समाधान और उसका निरन्तर स्रोत होना पाया गया है, देखा गया है।
मानव भ्रमवश शरीर को ही जीवन मानकर अपने सभी क्रियाकलापों को करता है-तभी वह सब किया गया का परिणाम समस्याओं के रूप में होती है। समस्याएँ मानव को स्वीकार नहीं है। विज्ञानियों के अनुसार शरीर ही जीवन होना बताया गया है। भ्रम का यही प्रधान बिन्दु है जबकि संज्ञानशीलता और संवेदनशीलता का संतुलन-संगीत परमावश्यक है। हर मानव में संवेदनशीलता, संज्ञानशीलता का होना पाया जाता है। जैसे ऊपर कहे गये उदाहरण के आधार पर स्पष्ट हो जाता है कि मानव अपने कर्म स्वतंत्रतावश विज्ञान, तकनीकी, प्रौद्योगिकी विधि से सामरिक दृष्टियों के और मानव में निहित सुविधा-संग्रह रूपी प्रलोभन की तुष्टि के लिये सम्पूर्ण पर्यावरण को दूषित कर दिया और धरती बीमार हो गई। यह विज्ञान सहज कर्म-स्वतंत्रता का फल है। पर्यावरण संतुलन सहज, संगीत सहज, अवधारणा और अनुभव होने के उपरान्त मानव अपने कर्म स्वतंत्रता को समस्याकारी कार्यों में नियोजित करना समाप्त हो जाता है। संज्ञानशीलता ही अनुभव सूत्र है-संवेदनशीलता ही कार्यसूत्र है। अनुभव ही ज्ञान-स्वरूप है। यह स्वयं नित्य समाधान और प्रामाणिकता है।
अनुभवमूलक सभी कार्यकलाप सत्य, समाधान और न्याय के रूप में प्रमाणित होता है। न्याय को हम नैसर्गिक और मानव संबंधों के साथ अनुभव किये हैं। इसे हर मानव अनुभव करने योग्य इकाई है, इसकी आवश्यकता सदा-सदा ही बना है। मानव परंपरा में अनुभवमूलक अभिव्यक्ति ही ज्ञानावस्था का सार्थक, आवश्यक, वांछित कार्य होना देखा गया है। इसी आधार पर अनुभवमूलक विचार के रूप में इस ग्रन्थ को प्रस्तुत करने की आवश्यकता निर्मित हुई।