अध्यात्मवाद
by A Nagraj
मानव जागृतिपूर्वक ही व्यवस्था, उसकी सार्वभौमता, समाज और उसकी अखण्डता को जानता है।
जानने का फलन मानने के रूप में आता ही है। मानने का स्वरूप है :- “यह सत्य है इसे स्वीकारना है।” और सत्य सहज प्रयोजन स्वयं से या सबसे जुड़ी हुई स्थिति को और गति को स्वीकारना ही मानना है। इससे स्पष्ट होता है हर स्थिति में वस्तु सहज वास्तविकताओं को जानना सहज है। इसी क्रम में उसके गति और प्रयोजन के साथ ‘सहअस्तित्व’ में, से, के लिए आवश्यकताओं को स्वीकारना ही मानना है क्योंकि प्रयोजन हर व्यक्ति में एक आवश्यकता है। इसलिये जानने-मानने की क्रिया मानव में परम मौलिक है। अन्य प्रकृति में यांत्रिक रूप में ही पहचानने, निर्वाह करने की क्रियाकलापों को देखा जाता है।
मानव ही जानने-मानने के आधार पर पहचानने-निर्वाह करने में प्रयोजनशील होता है। मानने का आधार प्रयोजन होना है। जानने का आधार क्यों और कैसे के उत्तर के रूप में है। साथ ही ‘वस्तु’ कैसा है ? यह भी जानने में आता है। वस्तु कैसा है ? यह जानने का स्वरूप है। इसी से क्यों और कैसे का उत्तर स्वयं-स्फूर्त विधि से निर्गमित होता है। मानने का तात्पर्य प्रयोजन पहचानने के अर्थ में सार्थक होता है। जैसे-अस्तित्व सहज नित्य स्थिति को जानना, सहअस्तित्व प्रयोजन सूत्र को पहचानना स्वाभाविक होना पाया गया।
अस्तित्व सहज सहअस्तित्व को पहचानने की क्रिया-स्वरूप ही निर्वाह करने के अर्थ को प्रमाणित कर देता है। इस प्रकार जानना, मानने के लिये उत्सव और उत्साह है; जानना-मानना, पहचानने के लिये उत्सव और उत्साह है; जानना-मानना-पहचानना, निर्वाह करने के लिये उत्सव और उत्साह है। यह सर्वमानव में हृदयंगम और स्वीकार्य योग्य सूत्र है।
पहले इस बात को भी स्मरण दिलाया गया है कि मानवेत्तर प्रकृति में भी पहचानने, निर्वाह करने की प्रक्रिया विधि नित्य वर्तमान है। इसी विधि सहज वैभव का प्रमाण पदार्थावस्था, प्राणावस्था, जीवावस्थाओं में देखने को मिलता है। देखने का तात्पर्य समझने से है। मानव ही अस्तित्व में दृष्टापद प्रतिष्ठा को प्रमाणित करता