अध्यात्मवाद

by A Nagraj

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परंपरा अपने में पीढ़ी से पीढ़ी के लिए सूत्र है ही-भले ही समुदाय विधि से हो या अखण्ड समाज विधि से हो। अखण्ड समाज विधि जागृति का द्योतक है एवं समुदाय विधि भ्रम का द्योतक है यह स्पष्ट है। समुदाय विधि से मानव स्वायत्त होना नहीं हो पाता है पराधीनता बना ही रहता है। अखण्ड समाज विधि से ही मानव में स्वायत्तता परंपरा शिक्षा-संस्कार विधि से संपन्न होता है। इसका प्रमाण अर्थात् स्वायत्तता का प्रमाण परिवार में होना देखा गया। परिवार मानव में सहअस्तित्व सूत्र से स्वायत्तता का प्रमाण सिद्ध हो जाता है। यह प्रचलित होने के लिये परंपरा की आवश्यकता है। दूसरे भाषा से सर्वसुलभ होने के लिए अथवा लोकव्यापीकरण होने के लिए परंपरा की आवश्यकता है।

परंपराएँ अस्तित्व सहज है। अस्तित्व स्वयं सहअस्तित्व होना ही परंपरा होने का नित्य सूत्र है। सहअस्तित्व स्वयं नित्य विकास और परंपरा है। इस प्रकार देखा गया है कि परमाणुओं में अपने प्रजाति की परंपरा है। परमाणु में परमाणु अंशों की संख्या रचना विधि सहजता सहित प्रकाशमान है। अनेक परमाणु का सहअस्तित्व में अणु रचना, उसमें निहित परमाणु संख्या और परमाणुओं में अंशों के संख्या में दूसरे प्रजाति सहित अणु प्रजातियाँ परंपरा के रूप में होना स्पष्ट है। अणुरचित रचनाओं में अनेक अणु प्रजाति और अणुओं का अनुपात के आधार पर ही रासायनिक-भौतिक रचनाएँ सम्पन्न होते हुए देखने को मिलता है। इसी क्रम में पदार्थावस्था प्राणावस्था जड़ प्रकृति के रूप में, जीवावस्था और ज्ञानावस्था चैतन्य प्रकृति के रूप में सहअस्तित्व सहज विधि से प्रकाशित है। चैतन्य प्रकृति में जीवन और शरीर का सहअस्तित्व होना देखा जाता है। जीवन अपने में गठनपूर्णता पद में संक्रमित चैतन्य इकाई है। यही चैतन्य प्रकृति है। जीवन सहित शरीर परंपरा ही दूसरे भाषा में जीवन से जीवंत शरीर परंपरा ही जड़-चैतन्य प्रकृति के संयुक्त रूप में गण्य होना पाया जाता है। अस्तित्व में सहअस्तित्व नित्य प्रभावी होने के कारण जड़-चैतन्य प्रकृति का सहअस्तित्व होना सहज है। जीवन सहज वांछा (आशा, विचार, इच्छा के रूप में देखने को मिलता है) जीने की आशा, जीवन में ऐश्वर्य होने के कारण अपना महिमा होने के कारण सहअस्तित्व में ही जीने का प्रमाण प्रस्तुत करना ही चैतन्य प्रकृति का कार्यकलाप होना देखा गया है।