अध्यात्मवाद
by A Nagraj
कल्पना (अस्पष्ट आशा, विचार, इच्छा का क्रियाकलाप) लाभ की स्वीकृति को मानव में होना पाया जाता है। इसका अंतिम सर्वेक्षण हानि का अस्वीकृति, लाभ की स्वीकृति। उल्लेखनीय तथ्य यही है अस्तित्व में लाभ-हानि का कोई विधि नहीं है। इसलिए कहीं लाभ होता है तो कहीं हानि हो ही जाता है। इसलिए आज तक लाभोन्मुखी व्यापार विधि से कोई संतुष्टि बिंदु अभी तक प्राप्त नहीं हुआ है। जबकि मानव हर विधाओं में संतुष्ट होना चाहता है। इसीलिए चाहना, होने का विरोधी है। सम्पूर्ण क्लेश भ्रमवश ही हो पाता है। जीवन ही भ्रमवश शरीर को जीवन समझने का फलन है। जीवन, जीवन को समझने के उपरान्त भ्रमजाल कष्टों से मुक्त होने के लिए उपायों को सोचना स्वाभाविक है। इसी क्रम में यह अध्ययन के लिए प्रस्तुत किया गया है। अस्तित्व न घटता है, न बढ़ता है, इसलिए लाभ-हानि से मुक्त है, इसलिये नाश से मुक्त है। इस प्रकार अस्तित्व नित्य वर्तमान रूप में अपने यथास्थिति में बने रहने का वैभव स्पष्ट है। अस्तित्व में अविभाज्य मानव भी सहअस्तित्व में अनुभूत होना स्वाभाविक है। सहअस्तित्व में ही व्यवस्था का विधान है। विविधता के साथ ही जुड़ा हुआ परस्पर पूरकता सूत्र ही विधान है। ऐसा विधान नियति सहज रूप में नित्य प्रभावी है। यही सहअस्तित्व का प्रमाण है। इसका और प्रमाण ग्रह-गोल एक दूसरे के पूरक होना; पदार्थ, प्राण, जीव और ज्ञान अवस्था परस्पर पूरक होना ही है।
पूरकता सहज विधि से अनुप्राणित होना रहना ही व्यवस्था सूत्र का आधार है। यह संवेदनशीलता, संज्ञानशीलता का संतुलन रूप में कार्यरत होना देखा गया है। जानने-मानने के रूप में संज्ञानशीलता को और पहचानने-निर्वाह करने के रूप में संवेदनशीलता को हर मानव अपने में और सम्पूर्ण मानव में पहचान सकता है। यही संवेदनाएँ अर्थात् पहचानने-निर्वाह करने का प्रवर्तन क्रम में पूरकता विधि अपने आप से चरितार्थ होता है। ऐसी चरितार्थता जीवन सहज अक्षय शक्तियों का ही वैभव है। इस क्रम में सम्पूर्ण मानव अपने को प्रयोजित कर पाना समीचीन है। इस क्रम में यह पता लगता है, समझ में आता है। मानवीयतापूर्ण आचरण के रूप में प्रमाणित हो जाता है कि मानव संचेतना अर्थात् संवेदनशीलता संज्ञानशीलता में, से जानना, मानना, पहचानना, निर्वाह करना यह पूणर्तया जागृत मानव सहज कार्यकलाप है। जीवन ही संज्ञानीयता का, मानव ही संज्ञानीयता-संवेदनशीलता का