अध्यात्मवाद

by A Nagraj

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कैवल्य अवस्था में प्रमाणित होता हुआ मानव में यह भी देखा गया है कि शरीर यात्रा की आवश्यकता शेष नहीं रह जाती है। कैवल्य पद प्रतिष्ठा प्राप्त जीवन जागृति पूर्ण होने के आधार पर जीवन के संपूर्ण क्रियाकलाप शरीर विरचित होने पश्चात् अनुप्राणित रहना देखा गया है। जागृति केन्द्रित वैभव जागृतिमूलक विधि से सम्पूर्ण जीवन क्रियाकलापों में जागृति अपने आप में प्रवाहित होता हुआ देखा गया है बल एक स्थिति, शक्ति एक गति के रूप में कार्यरत रहता है। बल और शक्ति में अविभाज्यता नित्य वर्तमान है। मूलत: बल ही है, महिमा के रूप में शक्तियाँ है। अनुभव मूलत: सहअस्तित्व में जागृति है। अस्तित्व सहज सहअस्तित्व में नित्य वर्तमान जीवन ही और जीवन में से आत्मा ही अस्तित्व में अनुभूत होना सहज है। अनुभव का स्वरूप जानने, मानने का तृप्ति बिन्दु पा लेना है। यही भ्रम निर्मूलन का प्रमाण है। अनुभव के अनन्तर अनुभव बोध होना एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। ऐसे बोध में जानने, मानने की स्वीकृति बनी ही रहती है। यही ऋतम्भरा बुद्धि है। ऐसी बोध सम्पन्न बुद्धि का प्रवर्तन में ही सहज संकल्प, यथा सत्यपूर्ण संकल्प सुदृढ़ रहती ही है। इसीलिये सत्य सहज परावर्तन में दृढ़ता को संकल्प के नाम से इंगित कराया गया। यह सत्य प्रभावी होना पाया गया है। सत्य सहज रूप में अस्तित्व ही है, इस तथ्य को यथा स्थान में स्पष्ट किया जा चुका है। यह नाम भी सत्य सहज दृढ़ता को इंगित कराता है। इस विधि से सत्य साक्षात्कार सहित चिन्तन सहज ही उत्सवित रहना देखा गया है। यही जीवन सहज नित्य उत्सव है। उत्सवापेक्षी चित्रण, तुलन, विश्लेषण , आस्वादन, चयन क्रियाएँ उत्सव से अनुप्राणित, उत्सवित रहते हैं। यह सब आत्म तृप्ति का ही द्योतक है। आत्मा निरंतर अनुभव तृप्ति सहज विधि से परमानन्दित रहना स्वाभाविक रहता ही है। इस क्रम में अनुभव सहज आनन्द, व्यवहार सहज सुख अपने आप में ध्रुव होना स्वाभाविक है, पुनश्च जागृति का स्वभाव होना देखा गया है। ऐसी नित्य उत्सव को ही कैवल्य का नाम दिया गया है।

नित्य उत्सव हर मानव का वांछित अभीप्सा है, जीवन सहज रूप में हर मानव शुभ स्वीकृति किया हुआ रहता है, जैसे सत्य, धर्म, न्याय स्वभाव इस प्रकार जीवन स्वीकृत तथ्यों के प्रति अपेक्षाएं रहना स्वाभाविक है। ऐसी अपेक्षाएँ सर्वमानव में विद्यमान है ही। इसीलिये सर्वमानव में, से, के लिये सर्वशुभ समीचीन है।