अध्यात्मवाद

by A Nagraj

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में ही परिवार रचना न्यूनतम आकार है। परिवार रचना के साथ ही व्यवस्था की आवश्यकता उद्भूत होना देखा गया है। व्यवस्था में जीना सर्वाधिक मानव का स्वीकृति है। व्यवस्था अपने में सहअस्तित्व सहज है, इस तथ्य को भी स्पष्ट किया जा चुका है, यह जागृति का पहला प्रमाण है। परिवार व्यवस्था में जीना सहज होने के उपरान्त ही समग्र व्यवस्था में भागीदारी संभव हो जाता है, समीचीन हो जाता है। जागृतिपूर्णता का यही प्रमाण होना देखा गया है। समग्र व्यवस्था में भागीदारी का प्रमाण सहित अभिव्यक्ति, संप्रेषणा, प्रकाशन ही कैवल्य होना देखा गया है। कैवल्य अवस्था में सर्वतोमुखी समाधान अनुभव प्रमाण के आधार पर नित्य प्रवाह के रूप में होना पाया जाता है। कैवल्य अवस्था का महिमा यही है। इसी स्थिति में मानवापेक्षा, जीवनापेक्षा पूर्णतया प्रमाणित संतुष्ट रहना देखा गया। यही भ्रम से मुक्त अवस्था है। बंधन मुक्ति का सकारात्मक स्वरूप जागृति पूर्णता ही है। भ्रमवश ही बन्धन का पीड़ा होना पाया जाता है। मानव परंपरा में पीढ़ी से पीढ़ी भ्रमित होने का कारण परंपरा ही भ्रमित रहना रहा है। मानव परंपरा पाँच आयाम में प्रमाणित रहना ही जागृति है। स्वभावत: मानव अनेक आयामों में व्यक्त व प्रमाणित होने योग्य इकाई है। उपयोग, सदुपयोग, प्रयोजनशीलता को साक्षित होने, रहने, करने योग्य इकाई है। यह सब कैवल्य पद में सार्थक व चरितार्थ होता है। दृष्टा पद जागृति योगफल में ही कैवल्य है न कि मोक्ष में।

मानव परंपरा जागृत होने के लिये अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित विश्व दृष्टिकोण को तर्क संगत विधि से अध्ययनगम्य होने के प्रणालियों से अभिव्यक्त होने के फलन में मानव परंपरा जागृत होना स्वाभाविक है। इसका प्रमाणों का धारक-वाहक अध्यापक ही होना पाया जाता है। निर्देशिका के रूप में वाङ्गमय और धारक-वाहकता के रूप में अध्यापक ही हो पाते हैं। विद्यार्थियों को जागृत शिक्षा प्रदान करने में समर्थ होना स्वाभाविक है। इस क्रम में मानव परंपरा जागृत होने का संयोग समीचीन है। जागृति निरंतर, न्याय, समाधान, सत्य सहज होता ही है, इसका वैभव ही मानवापेक्षा और जीवनापेक्षा के रूप में सार्थक हो जाता है। ऐसे सार्थकता को प्रमाणित करना ही जागृत मानव परम्परा का तात्पर्य है।