अध्यात्मवाद
by A Nagraj
को परम सत्य के नाम से इंगित कराया गया है। अनुभव और उसकी अभिव्यक्ति का मूल कारण सहअस्तित्व ही है।
एकान्त और सहअस्तित्व
आदि काल से आस्था के आधार रूप में एकान्त वास मान्यता के रूप में कहता हुआ देखने को मिल रहा है। इसके मूल प्रतिपादन में कोई एक महान ज्ञान और सर्वज्ञ शक्तिमान है जिससे ही सम्पूर्ण जीव-जगत की उत्पत्ति, स्थिति और लय होता है-ऐसे शक्ति के अनुग्रह से ही जीवनों का उद्धार हो सकता है। इसीलिये ऐसे अज्ञात शक्ति को प्रसन्न कर अनुग्रहित होने के लिये अनेक उपायों को प्रस्तुत किया है। यही अध्यात्मवाद, अधिभौतिकवादी, अधिदैवीयवादी मान्यताएँ प्रणीत हुआ, प्रचलित हुआ। इस प्रणयन में विविधता बना रहा। मूलतः यही मानसिकता है, विचारों में प्रभेद, मानसिकता में प्रभेद और समुदायों में प्रभेद होना दृष्टव्य है। इन्हीं प्रभेदता और उन-उन के प्रति कट्टरता है। इसी के साथ ही रूढ़ियाँ (एक परंपरा जिस प्रकार रूढ़ियों को बनाए रखता है - के अतिरिक्त बाकी सभी को गलत माने रहना।) यही भ्रमात्मक अहमता का मूल है। यह सुस्पष्ट है कि भ्रमात्मक अहमताएँ मानव के सामाजिक होने का सूत्र व्यवस्था अभी तक नहीं बन पाई। आगे भी नहीं बन सकेगा। इसका गवाही यही है कि भ्रमात्मक विधि से कोई भी सूत्र निर्धारित नहीं हो पाता। अहमतावश जिसको निर्धारण मान लेते हैं, उसका विरोध उसी समय से निर्गमित रहता ही है। जैसा विधर्मियों का नाश - यह सभी समुदायों का आवाज है। इसका विश्लेषण यही है कि एक समुदाय से मान्य रूढ़ियों अहमताओं के अतिरिक्त और जितनी भी अहमताएँ और रूढ़ी है उनके नाश की कामना। इन सभी रूढ़ी और अहमता के मूल में आस्था ही कारण है। आस्था का तात्पर्य यही है किसी वस्तु को हम नहीं जानते हुए उसके अस्तित्व को मान लेना। इसी आस्था के आधार पर अपने मनमानी रूढ़िगत अहमताओं को सुदृढ़ करते हुए जुटे रहना देखा गया है। यद्यपि हर आस्थाएँ शुभाकांक्षा से शुरू होते हुए किसी के नाश रूपी अशुभ के रूप में ही स्वयं के शुभ को मानने वाली स्थिति में आ जाता है। इसी आधार पर किसी भी प्रकार की आस्था अभी तक इस धरती में सार्वभौम होने में समर्थ नहीं हुआ। इस विधि से हम एकान्तवादी मान्यताओं के आधार पर,