अध्यात्मवाद

by A Nagraj

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पर कर्ता, कार्य, कारण अपने आप में स्पष्ट होना स्वाभाविक है। कारण मूलतः मानव में पाये जाने वाली दृष्टि ही है। दृष्टि के कारण ही कार्य, कार्य के कारण से भोग, भोग के कारण से पुनर्दृष्टि, विचार होना हर मानव में दृष्टव्य है।

मानव में संपूर्ण कारण रूपी दृष्टि (जागृति) के आधार पर हर व्यक्ति करणीय कार्यों का निर्धारण कर पाता है। ये निश्चित वैचारिक प्रक्रिया है। इन्हीं कारणवश करने, स्वीकारने के रूप में कार्यकलाप सम्पन्न होते हुए देखने को मिलता है। सर्वमानव में छः दृष्टियाँ क्रियाशील होने की आवश्यकता और संभावना ही अध्ययनगम्य है, इसे स्पष्ट किया जा चुका है। इसी के साथ यह भी स्पष्ट किया जा चुका है कि प्रिय, हित, लाभ दृष्टि पूर्वक कोई भी मानव सामाजिक होना संभव नहीं है, व्यवस्था में जीना अति दुरूह रहता ही है। इसी अवस्था को भ्रमित अवस्था के नाम से स्पष्ट किया गया। जागृतिपूर्वक मानव में न्याय, धर्म, सत्य दृष्टि विकसित होती है। जागृतिपूर्वक मानव सामाजिक होता है और व्यवस्था में जीता है। हर मानव में, से, के लिये जागृति न्याय, धर्म, सत्य स्वीकृत है और वांछनीय है। भ्रमवश विभिन्न समुदाय परम्पराएँ अपने-अपने सामुदायिक अहमता के साथ उनके परंपरा में आने वाले सन्तानों को भ्रमित करने का तरीका खोज रखे हैं। इसलिये हर परंपरा में आने वाले संतान पुनः पुनः भ्रमित होते आए। यह काम बीसवीं शताब्दी के दसवें दशक तक देखने को मिला। दसवें दशक में “अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित दृष्टिकोण” सम्पन्न कुछ लोगों में यह सुस्पष्ट हो गई कि विगत से परम्परा में प्राप्त शिक्षा-संस्कार भ्रम की ओर है। इससे छूटना आवश्यक है। इसी के साथ यह भी समझ में आया कि हर मानव परम्परागत समुदाय मानसिकता से बड़ा होना देखने को मिलता है। इसका साक्ष्य यही है परम्पराओं में कहे हुए विधि से जितना खराब होना था, उतना न होकर उतना भाग सही की ओर होना पाया जाता है। जैसे हर प्रकार की धर्मगद्दियाँ अपने-अपने धर्म के विरोधी सभी पापी है, विधर्मी हैं, अधर्मी हैं, इन सबका नाश होगा। नाश करने वाला ईश्वर परमात्मा, सर्वशक्तिमान है। धर्म को बचाने वाला ही विधर्मियों का संहार करेगा। ऐसे विधर्मियों को संहार करना न्याय है और इससे ईश्वर प्रसन्न होते हैं। यह तो हुई परस्पर विद्रोहीता के लिये तत्व। यदि ईमानदारी से हर धर्म परम्पराओं में कही हुई बातों पर तुला जाये तो सदा लड़-झगड़ कर मारते ही रहना चाहिये या मरते ही