अध्यात्मवाद
by A Nagraj
संस्कार ही है। जागृति और व्यवस्था के निरंतरता क्रम में स्वास्थ्य-संयम प्रणाली अपने आप मानव में, से, के लिये करतलगत होता है। इस प्रकार जागृति और जागृतिमूलक विधि से व्यवस्था सार्वभौम होना स्वाभाविक है। क्योंकि हर मानव जागृत होना चाहता ही है और हर मानव व्यवस्था में जीना चाहता ही है। यही अस्तित्व में अनुभव की महिमा है सहअस्तित्व का प्रभाव है फलत: जागृति और जागृति का प्रमाण रूप सार्वभौम व्यवस्था मानव परंपरा में सार्थक होता है। यही “अनुभवात्मक अध्यात्मवाद” का प्रयोजन है।
अभ्यास और साधना, आराधना
यह आदि काल से सुनी हुई भाषा अथवा मुद्दा है। मुद्दा के रूप में मानव प्रवृत्तियाँ को आंकलित किया जाना सहज है। सुनी हुई आधार पर किताबों, दस्तावेजों के रूप में, प्रवक्ताओं के मुखारबिन्द से सुनी हुई स्थितियाँ आंकलित होती है।
आराधनाओं को अपने आर्तता (असमर्थता) को अर्हता (समर्थता) के लिये सर्व समर्थ सम्पन्न किसी अज्ञात के अस्तित्व को मानते हुए आर्तनाद करते हुए क्रियाकलापों के रूप में देखा गया है। इस विधि से प्रमाण और उसकी सार्वभौमता का कोई एक सूत्र बना ही नहीं। फिर भी इस बात को आंकलित करने के लिए यह प्रयत्न किया कि बहुत सारे लोग कैसे आराधना में प्रसन्न रहते हुए भी देखने को मिलता है। इस क्रम में यह पाये कि किसी न किसी इष्ट-अनिष्ट घटनाओं को अपने आराधना का फल मानते हुए सांत्वना लगाते हुए देखा गया। हमारी यात्रा में आराधना का फल-परिणामों में उक्त प्रकार से आंकलित करते रहे। अतएव सभी आराधना व्यक्तिवादी होना स्पष्ट हो गया।
साधना में कई लोग आज भी शुभकामना से ही प्रवृत्त रहते हैं। साधना को हम अपने सुधार के लिये किया गया प्रयास के रूप में देख पाए। सुधार का अंतिम (तृप्ति) बिन्दु जागृति के रूप में ही होना देखा गया।
अभ्यास को हम इस तथ्य के रूप में देख पाये हैं कि साधना से जो जागृति बिन्दु हमें प्राप्त हुई और समृद्ध हुए उसे अभ्युदय (सर्वतोमुखी समाधान) के रूप में