अध्यात्मवाद
by A Nagraj
चुकी है। जागृतिपूर्ण परंपरा में साध्य, साधन, साधक में नित्य संगीत होना देखा गया है। दूसरे भाषा में नित्य समाधान होना पाया गया है।
उल्लेखित अनुभवों के आधार पर सम्पूर्ण जागृति अपने-आपसे जीवन ज्ञान, अस्तित्व दर्शन ज्ञान, मानवीयतापूर्ण आचरण ज्ञान में ही सम्पूर्ण है। इसका अभ्यास विधि सर्वप्रथम अनुसंधान दूसरा अध्ययन पूर्वक शोध, शोध पूर्वक अध्ययन ये ही मूल अभ्यास है। क्योंकि अध्ययन विधि से ही, शोध विधि से ही अवधारणा का स्वीकृत होना देखा जाता है। अन्य विधि जैसे उपदेश विधि में भ्रमित होने की संभावना सदा बना ही रहता है।
हर परंपरा में अपने ढंग की आदेश प्रतिष्ठा स्थापित रहता ही है। वह अध्यवसायिक (अध्ययनगम्य) होते तक उपदेश या सूचना मात्र है। परंपरा में जिस आशय के लिये आदेश-निर्देश है वह तर्क संगत-व्यवहार संगत बोध होने की प्रक्रिया प्रणाली पद्धति ही अध्ययन कहलाती है। तर्क का सार्थक स्वरूप विज्ञान सम्मत विवेक और विवेक सम्मत विज्ञान होना देखा गया। प्रयोजनविहीन उपदेश प्रयोग वह भी व्यवहार, प्रमाण विहीन उपदेश तब तक ही रह पाता है जब तक तर्क संगत न हो। तर्क का तात्पर्य भी इसी तथ्य को उद्घाटित करता है। तृप्ति के लिये आकर्षण प्रणाली (भाषा प्रणाली) ऐसे तर्क सहज रूप में ही विज्ञान के आशित विश्लेषणों को विवेक से आशित प्रयोजनों का प्रमाणित होना सहज है। हम इस बात को समझ चुके हैं कि प्रयोजनपूर्वक जीने के लिये, प्रमाणित होने के लिये समाधान समृद्धि के रूप में सहअस्तित्व दर्शन के लिये तर्क संगत अध्यवसायिक विधि का होना आवश्यक है।
अध्ययन क्रियाकलाप, तर्कसंगत प्रयोजन, प्रयोजन संगत मानवापेक्षा, मानवापेक्षा संगत जीवनापेक्षा, जीवनापेक्षा संगत सहअस्तित्व, सहअस्तित्व संगत विकास क्रम और विकास, विकासक्रम और विकास संगत जीवन-जीवनी क्रम-जागृति क्रम-जागृति एवं इसकी निरंतरता सहअस्तित्व सहज लक्ष्य है। अस्तित्व सहज लक्ष्य में भी मानव ही अविभाज्य है और दृष्टा है। इसलिये मानव अस्तित्व सहज सहअस्तित्व विधि से पूरकता-उदात्तीकरण, पूरकता-विकास, पूरकता-जागृति सूत्रों के आधार पर सहअस्तित्व सहज अध्ययन सुलभ हुआ है।