अध्यात्मवाद
by A Nagraj
सम्पूर्ण अस्तित्व ही व्यवस्था के स्वरूप में वर्तमान होना समीचीन है। आज भी मानव के अतिरिक्त सभी अवस्था में (पदार्थ, प्राण, जीव अवस्था) अपने-अपने त्व सहित व्यवस्था में होना दिखता है। इसी क्रम में मानव भी अपने मानवत्व सहित व्यवस्था और समग्र व्यवस्था में भागीदारी सहज अपेक्षा को सार्थक बनाने के क्रम में ही जागृत होना पाया जाता है।
हम यह पाते हैं कि जागृति सूत्र व्याख्या और प्रमाण सर्वशुभ के स्वरूप में ही वैभवित होता है। इस आशय को लोकव्यापीकरण करना भी सर्वशुभ कार्यक्रम का एक बुनियादी आयाम है। इसी सत्यतावश “अनुभवात्मक अध्यात्मवाद” एक प्रस्तुति है। हर मानव अपने कल्पनाशीलता, कर्मस्वतंत्रता पूर्वक ही हर प्रस्तुतियों को परखना (परीक्षण करना) स्वीकारना या अस्वीकार करने के कार्यकलाप को करता है। मानव अपने में ही पाये जाने वाले कल्पनाशीलता-कर्मस्वतंत्रतावश ही कार्यप्रणालियों की दिशाओं को परिवर्तित करता है। जैसे राजशासन राजकेन्द्रित दिशा से छूटकर लोककेन्द्रित दिशा के लिए तड़प रहा है। दूसरे भाषा में राजतंत्र से छूटकर लोकतंत्र की अपेक्षा बलवती हुई है। मान्यताओं पर आधारित (अथवा मान्यता केन्द्रित) रूढ़ियों के स्थान पर सार्थकता की ओर नजरिया को फैलाने की प्रवृत्तियाँ मानव में उदय हो चुकी है। मान्यता का दूसरा आयाम रहस्यमूलक गाथाओं के आधार पर मानव अपने कार्य नीतियों, व्यवहार नीतियों को निर्धारित रहने के लिए विवश रहते आया है। उसमें पुनर्विचार की आसार जैसे-समझदारी के आधार पर कार्य-व्यवहार, उत्पादन-विनिमय, स्वास्थ्य-संयम, शिक्षा, न्याय जैसी प्रवृत्तियों को सार्वभौमता की ओर दिशा परिवर्तन की आवश्यकता बलवती होती जा रही है। इससे पता चलता है-हम मानव एक ऐसा अभ्यास विधि चाहते हैं जो सर्वमानव में स्वीकृत हो, प्रयोजनशील हो। इन दो ध्रुवों के आधार पर ही मानवापेक्षा और जीवनापेक्षा का अर्थ, प्रयोजन और प्रणाली, पद्धति, नीति स्पष्ट हो गये है। मानवापेक्षा अर्थात् मानव लक्ष्य जीवनापेक्षा अर्थात् जीवन मूल्य है।
अस्तित्वमूलक मानव केन्द्रित चिन्तन विधि से उक्त मुद्दे पर हर व्यक्ति के पारंगत होने का अवसर, आवश्यकता और प्रत्येक मानव जीवन में निहित अक्षय बल रूपी साधन वर्तमान रहता है। समझदारी के आधार पर ही मानव में