अध्यात्मवाद

by A Nagraj

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सार्वभौम व्यवस्था का स्रोत सहित जीवन ज्ञान, अस्तित्व दर्शन, मानवीयतापूर्ण आचरण में प्रमाण के रूप में होना पाया जाता है। जागृतिपूर्णता ही प्रमाण का आधार है। हर व्यक्ति प्रमाण होना चाहता है। इसीलिये मानव परंपरा में दिव्य मानवीयता वांछित व आवश्यक है। इस अवस्था में बन्धन मुक्ति प्रमाण होना पाया जाता है। यही बन्धन मुक्ति का सार संक्षेप स्वरूप है। मुक्ति को आचरण में ही प्रमाणित होना पाया जाता है। व्यवहार कार्य में ही साक्षित होना पड़ता है। सम्पूर्ण अस्तित्व ही प्रकाशमान होने के कारण मानवीयता, देवमानवीयता, दिव्यमानवीयता भी प्रकाशित होना स्वाभाविक है।

बंधन मुक्ति क्रम, मुक्ति (मोक्ष) और अभ्यास

सहअस्तित्व में अनुभव सहज प्रयोजनों को प्रमाणित अर्थात् जागृति क्रम में ही बन्धन मुक्ति होना दृष्टव्य है। मानव इकाई (सम्पूर्ण मानव इकाई) अपने आरंभिक काल से ही पहचानने-निर्वाह करने के क्रम को जारी रखा है। फलस्वरूप नस्ल, रंग, जाति, भाषा, देश, काल, दिशा, वस्तु उपयोग (उपभोग के लिये), अधिक, कम को पहचानने के लिये प्रयत्न किया ही है। यह सभी प्रक्रियाएँ जागृति क्रम में प्रमाणित होते हुए जागृति प्रमाणित होना अभी भी प्रतीक्षित है ही। अभी तक विविध प्रकार से स्थापित सामुदायिक परंपराएं अपने श्रेष्ठता को अहमता के रूप में (भ्रमित निर्णय के रूप में) पालता हुआ इस वर्तमान में देखने को मिल रहा है। इसमें मूलतः साम्य ध्रुव बिन्दु को मानव जाति अर्थात् सम्पूर्ण सामुदायिक परंपराएँ पहचानने से वंचित रह गया। इसी एकमात्र कारण से संघर्ष प्रवृत्ति मानव अथवा सभी समुदाय अथवा सर्वाधिक समुदाय उसकी तैयारी मान ली गई। यही भ्रमित विधि से श्रेष्ठता को मान लेना स्पष्ट हुआ। इसका साक्ष्य अभी तक यही है। सामरिक साधन और तकनीकी से पारंगत, अन्य देशों और समुदायों को शोषण करने में अभ्यस्त समुदाय; देश, विकसित देश और विकसित समुदाय कहे जा रहे हैं और माने जा रहे हैं। इस साक्ष्य से यह स्पष्ट हो जाता है कि धोखेबाजी की अहमता विकास के नाम से किस प्रकार से स्थापित हुआ है। यह उल्लेख यहाँ भ्रम मुक्ति की आवश्यकता अथवा अनिवार्यता कितनी समीचीन है इस ओर ध्यान दिलाने के लिये प्रस्तुत किया।