व्यवहारवादी समाजशास्त्र

by A Nagraj

Back to Books
Page 223

उत्पादन कार्यों में जीवन शक्तियों और बलों को अर्पित करना ही देने का तात्पर्य है। ऐसा दायित्व, कर्तव्यों के साथ ही अर्थात् व्यवहार, उत्पादन, व्यवस्था, समग्र व्यवस्था में भागीदारी के साथ ही प्रमाणित होता है। यही कर्तव्य का स्वरूप और महिमा है। ऐसे कर्तव्य और दायित्व हर व्यक्ति में चेतना विकास पूर्वक स्वीकृत हैं। इसलिये जागृति के उपरान्त प्रमाणित होना सहज है। जागृत मानव में दायित्व और कर्तव्य पूरक विधि से सम्पन्न होता ही रहता है।

मानवेत्तर तीनों प्रकृति में भी पूरकता नियम से सम्पूर्ण कार्य सम्पन्न होता हुआ देखने को मिलता है। इनमें लक्ष्य तीनों अवस्थाओं में तीन स्वरूप में होना देखा गया है। पदार्थावस्था में परिणामानुषंगी सूत्र और व्याख्या है। यही प्राणावस्था में परिणाम सहित पुष्टि धर्म निहित रहना पाया जाता है। जीवावस्था में अस्तित्व, पुष्टि सहित जीने की आशा धर्म विद्यमान होना देखा गया है। इसलिये सम्पूर्ण जीवावस्था जीवनीक्रम सहित परिणाम, पुष्टि सहित जीने की आशा सहज लक्ष्य रूप में होना पाया जाता है। इसलिये जीवावस्था में जीने की आशा, लक्ष्य, सूत्र और व्याख्या प्रमाणित है। मानव में अस्तित्व, पुष्टि, जीने की आशा सहित सुख धर्मीयता स्पष्ट है। इसी के साथ अपरिष्कृत, परिष्कृतपूर्ण संचेतन सहज कार्यकलाप का वर्गीकरण भ्रम व जागृति रूप में करता हुआ मानव अपने आप में स्पष्ट है। ऐसे मानव में स्वाभाविक रूप में सुख लक्ष्य, सूत्र व्याख्या का होना स्वाभाविक रहा है। ऐसी सुख लक्ष्य परिष्कृत संचेतना अथवा परिष्कृत पूर्ण संचेतना सहज विधि से समाधान, समृद्धि, अभय, सहअस्तित्व में अनुभव प्रमाण सहित प्रमाणित होना पाया जाता है। मानव अपने आप में सुख धर्मी होने के आधार पर ही मानव संचेतना सहज अर्थात्