व्यवहारवादी समाजशास्त्र

by A Nagraj

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अध्याय - 8

दायित्व और कर्तव्य

जागृत मानव सहज रूप में समझदारी के आधार पर ही सम्पूर्ण प्रकार के विचार करता हुआ, विचारों के आधार पर अथवा विचार शैली के आधार पर ही जीने की कला अथवा जीवन शैली ही सम्पूर्ण कार्यकलाप होना पाया जाता है। मूल समझ का स्वरूप अस्तित्व रूपी सहअस्तित्व ही होना स्पष्ट हो चुका है। ऐसा समझ जानने, मानने, पहचानने, निर्वाह करने के रूप में संचेतना स्वरूप मानव में वर्तमान होना प्रमाणित है। यही मानव सहज जागृति का द्योतक है। प्रत्येक जागृत मानव संचेतनापूर्ण अथवा संचेतनशील रहता ही है। पूर्ण होने का तात्पर्य दिव्यमानव पद में सार्थक और प्रमाणित होता है और मानव तथा देवमानव परिष्कृत संचेतनशील रहता है। भ्रमित मानव अपरिष्कृत संवेदनशील रहता ही है। इसी कारणवश मानव में पाँच कोटियाँ सुस्पष्ट हो चुकी हैं। जागृति पूर्ण मानव पंरपरा मानव संतानों में ही देखने को मिलेगी। युवा-प्रौढ़ व्यक्तियों में भ्रम का सम्भावना ही समाप्त हो जाता हैं। परिष्कृत और परिष्कृतपूर्ण संचेतन सम्पन्न मानव परंपरा में दायित्व और कर्तव्य बोध होना स्वाभाविक है। संचेतना का तात्पर्य पूर्णता के अर्थ में चेतना है। चेतना का तात्पर्य ज्ञान और ज्ञान के स्वरूप में जानने, मानने, पहचानने एवं निर्वाह करने का प्रमाण है।

सम्पूर्ण प्रमाण वर्तमान में ही वैभवित होना देखा गया। संचेतना सहज विधि से जीवन शक्ति और बल को पूरक विधि से देने योग्य स्वरूप स्वयं में दायित्व है। व्यवहार और