व्यवहारवादी समाजशास्त्र
by A Nagraj
रूप में संबंध होना दिखता है। इसी क्रम में प्रत्येक मानव संतान की शरीर रचना में, उसके वैभव में स्वीकृतियाँ बना ही रहता है। हर मित्र संबंध, हर भाई-बहन के संबंध में शरीर संबंध का स्वरूप कहे गये स्वरूप में ही स्वीकृत रहता है। पति-पत्नी संबंध प्रधानतः गर्भाशय में शरीर रचना कार्य प्रवृत्ति ही होना पाया जाता है। इसी के साथ यौवन सम्पन्नता सहित यौन विचार से होने वाली आवेश मुक्ति के क्रियाकलाप को भी शरीर संबंध में पहचाना गया है। इस प्रकार शरीर संबंध का अर्थ विवाह संबंध से इंगित होने वाला बात स्पष्ट है। यह सामान्य रूप में मानवेत्तर प्रकृति और मानव से निर्मित वातावरणों का निरीक्षण विधि से भी शरीर संबंध विवाह विधि से होने वाला तथ्य इंगित रहता ही है। इसीलिये इसके लिये अलग से कोई शिक्षा प्रदान करने की आवश्यकता नहीं रह जाता।
विवाह संबंध में प्रधान मुद्दा अन्य संबंधों के सदृश्य ही विश्वास निर्वाह करना ही है। विश्वास वर्तमान में ही निर्वाह होता है। व्यवस्था पूर्वक ही परस्पर विश्वास होना स्वाभाविक है। व्यक्तित्व और सामाजिकता सूत्र अपने आप में, वर्तमान में, व्यवस्था के रूप में जीने के लिये पर्याप्त स्रोत है। व्यक्तित्व, कायिक, वाचिक, मानसिक, कृत, कारित, अनुमोदित विधियों से वर्तमान में संतुष्ट रहने, पाने का विधि है। हर मानव कायिक, वाचिक, मानसिक रूप में ही सम्पूर्ण कार्य-व्यवहारों को सम्पन्न करता है। कायिक, वाचिक, सम्पूर्ण क्रियाकलाप से मानसिक तृप्ति की आवश्यकता हर मानव में, से, के लिये अपेक्षित रहता है। तृप्त मानसिकता सहित हर मानव में कायिक, वाचिक, मानसिक क्रियाकलाप सम्पन्न होता हुआ देखा जाता है। कायिक, वाचिक, मानसिक क्रियाकलाप के मूल में विचार, इच्छा जिसके मूल में संबंध,