व्यवहारवादी समाजशास्त्र

by A Nagraj

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से प्रमाणित होता है। ऐसे सफल परिवार का पहचान, मूल्यांकन सहित गतित रहना ही मानव परंपरा की आवश्यकता, गरिमा, महिमा सहित प्रतिष्ठा है। जागृति पूर्ण मानव ही गुरू पद में वैभवित होना स्वाभाविक है। जागृति पूर्ण परंपरा में ही हर मानव संतान में जागृत पद प्रतिष्ठा को स्थापित करना सहज है। इस विधि से जागृति परंपरा के अर्थ में शिक्षा-संस्कार सार्थक होना पाया जाता है जिसकी अपेक्षा भी सर्वमानव में होना भी सहज है। शिक्षा-संस्कार, उसकी सफलता का मूल्यांकन स्वायत्त मानव, परिवार मानव के रूप में शिक्षा अवधि में ही मूल्यांकित हो जाता है। मूल्यांकन का आधार भी यही दो मापदण्ड है।

5. पति-पत्नी संबंध (विवाह संबंध) :- मानव परंपरा में विवाह संबंध अधिकांश लोगों में वांछित है। यह संबंध अपने-आप में परस्पर सर्वतोमुखी समाधान सहित विश्वास वहन करने की प्रतिज्ञा पूर्वक आरंभ होने वाला संबंध है। हर संबंधों में विश्वास वहन होना एक अनिवार्य और सामान्य स्थिति है। विवाह संबंध में भी विश्वास निर्वाह आवश्यक है ही। विवाह संबंध में होने वाले शरीर संबंध और उसकी अपेक्षा परस्परता में आयु के अनुसार विदित रहता है। इतना ही नहीं सर्वविदित रहता है। सभी संबंधों में जीवन सहज भागीदारी समान रूप में विद्यमान रहता है। विश्वास सभी संबंधों में जीवन सहज अपेक्षा है। क्रम से व्यवहार संबंध, व्यवस्था संबंध और शरीर संबंधों को विश्वासपूर्वक ही नियंत्रित किया रहना देखने को मिलता है।

शरीर संबंध माता-पिता के संबंध में गर्भाशय और उसमें निर्मित होने वाले शरीर के रूप में गण्य होता है। भाई-बहन के साथ एकोदर अर्थात् एक गर्भाशय में निर्मित शरीरों के