व्यवहारवादी समाजशास्त्र

by A Nagraj

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पहचानना संभव नहीं है। अथक कल्पनाशीलता मानव के पास, दूसरे नाम से विज्ञानियों के पास हैं ही और कल्पनाशीलता वश ही विखण्डन प्रवृत्ति के रूप में सत्य का खोज के लिए, जो कुछ भी यांत्रिक, सांकरिक विधि (संकर विधि) प्रयोग किया गया। उन प्रयोगों को काल्पनिक मंजिल मान लिया गया। उस मंजिल को अंतिम सत्य न मानने का प्रतिज्ञा भी करते आया। इन दोनों उपलब्धियों को विखण्डन विधि से पा गये ऐसा विज्ञान का सोचना है। गणित का मूल गति तत्व मानव का कल्पना है। गणित का प्रयोजन यंत्र प्रमाण है और उसके लिये विघटन आवश्यक है। यही मान्यताएँ है। जबकि देखने को यह मिलता है कि किसी यंत्र का संरचना अथवा संकरित पौधा, संकरित जीव जानवर का शरीर, संकरित बीज इन क्रियाकलापों को करते हुए विधिवत् संयोजन होना पाया जाता है अथवा किया जाना पाया जाता है।

अध्ययन क्रम में विश्लेषण एक आवश्यकीय भाग है। हर विश्लेषण प्रयोजनों का मंजिल बन जाना ही विश्लेषण का सार्थकता है। सार्थकताओं का प्रमाण स्वयं मानव होने की आवश्यकता सदा-सदा ही बना रहता है। इसका स्रोत अस्तित्व में ही है। मानव का प्रयोजन स्रोत भी सहअस्तित्व ही है। अस्तित्व में प्रयोजन का स्वरूप व्यवस्था के रूप में वर्तमान है। और विश्लेषण का स्वरूप सहअस्तित्व के रूप में वर्तमान है। सहअस्तित्व व्यवस्था के लिये सूत्र है, व्यवस्था वर्तमान सहज सूत्र है। वर्तमान में ही मानव समाधान, समृद्धि, अभय, सहअस्तित्व को व्यवस्था के फलस्वरूप पाता है। मानव इस शुभ प्रयोजन के लिये अपेक्षित, प्रतीक्षित रहता ही है। मानव कुल में सर्वमानव का दृष्ट प्रयोजन यही है। यह सहअस्तित्व विधि से सार्थक होता है। अस्तु विश्लेषण