व्यवहारवादी समाजशास्त्र

by A Nagraj

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पद्धति, प्रणाली, नीति समेत पारंगत होने की विधि रहेगी। इसी विधि से हर आचार्य विद्यार्थियों को शिक्षण-शिक्षा पूर्वक अध्ययन कार्य को सम्पन्न करने में समर्थ रहते हैं। जिसमें उनका कर्तव्य और दायित्व प्रभावशील रहना स्वाभाविक है। क्योंकि हर आचार्य शिक्षा, शिक्षण, अध्ययन का प्रमाण स्वरूप में स्वयं प्रस्तुत रहते हैं इसलिये यह सार्थक होने की संभावना अथवा निश्चित संभावना समीचीन रहता है।

हर आचार्य स्वायत्तता विधि से परिवार में प्रमाणित रहते ही हैं। यही सर्वमानव का वांछित, आवश्यक और नित्य गति रूप जो अपने आप में सुख, सुन्दर, समाधान है जिसका फलन समाधान, समृद्धि, अभय, सहअस्तित्व है। जिन प्रमाणों के आधार पर जीवन तृप्ति ही सुख, शांति, संतोष, आनन्द के नाम से ख्यात है। यही भ्रममुक्ति गतिविधि प्रमाण के रूप में हर विद्यार्थी के रूप में समीचीन रहता है। इस प्रकार भ्रममुक्त परंपरा का स्वरूप, कार्य, महिमा, प्रयोजन प्रमाण के रूप में रहना ही शिक्षा-संस्कार परंपरा का वैभव अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था के रूप में गतिशील रहता है।

प्रत्येक स्वायत्त आचार्य व्यवहार में सामाजिक, व्यवसाय में स्वावलंबी और व्यवस्था में भागीदारी का प्रमाण होना देखा जाता है। फलस्वरूप हर विद्यार्थी ऐसे सुखद स्वरूप में जीने के लिये प्रवृत्त होना स्वाभाविक है। जागृत मानव सार्वभौमिकता के अर्थ में स्वायत्त मानव के रूप में ही होना देखा गया। स्वायत्त मानव का शिक्षा-संस्कार विधि से प्रमाणित होना और स्वायत्त मानव का प्रमाण परिवार में होना, परिवार मानव का प्रमाण व्यवस्था और व्यवस्था में भागीदारी के रूप में स्पष्ट किया जा चुका है। इसी के साथ यह भी स्पष्ट हो चुका है कि सार्वभौम व्यवस्था का संतुलन