भौतिकवाद

by A Nagraj

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ही अपने संतुलन को स्वभाव गति के रूप में रख पाता है। इसी के साथ अर्थात् ऋतुमान के साथ ही सानुकूल रूप में धरती, हवा और उर्वरक संयोग भी महत्वपूर्ण कारक तत्व है।

ऊपर कहे गए सभी तत्व यथा-शीत, उष्ण, वर्षा, हवा, धरती और उर्वरकता का संतुलन यह धरती अपनी स्वभावगति प्रतिष्ठा के आधार पर स्पष्ट कर चुकी तभी जीव और मानव संसार इस धरती पर पनपे। इस प्रकार इस धरती की स्वभावगति प्रतिष्ठा में स्थित प्रत्येक मानव को समझ में आता है। अस्तु, प्राणावस्था की संपूर्ण रचनाओं के लिए अपनी परंपरा सहज स्वभाव गति को अक्षुण्ण बनाए रखने हेतु उक्त पाँचों कारक तत्वों का संतुलित रहना एक आवश्यकता है। इस प्रकार प्राणावस्था और प्राणावस्था की संपूर्ण रचनाएँ पदार्थावस्था से विकसित दिखते हुए, वातावरण और नैसर्गिकता सहज कारक तत्वों का सहअस्तित्व सहज पूरकता अनिवार्य रहना दृष्टव्य है।

इस विश्लेषण में भी अंतर्विरोध बाह्य विरोध के स्थान पर अंतर्सबधों में संतुलन बाह्य संबंधों में भी संतुलन इनके संयोग में सामन्जस्यता प्रमाणित होती हैं। यह समाधान का साक्षी है। ऊपर किए गए विश्लेषण से यह भी स्पष्ट हुआ कि सहअस्तित्व में ही स्वभावगति और आवेशित गति परस्पर सानुकूलता, प्रतिकूलता आवश्यकता, उपलब्धि, संभावना ये सब मानव में, से, के लिए अध्ययनगम्य होते हैं। इसकी आवश्यकता इसीलिए है कि “मानव स्वयं संतुलित स्वभावगति संपन्न समाधान सहज रूप में वैभवित हो सके।”

“जीवों की सानुकूलता और स्वभाव गति प्रधानत: आहार, विहार व प्रजनन कार्य में प्रमाणित हो पाती है।” जीवों में शाकाहारी और मांसाहारी प्रजातियाँ देखने को मिलती हैं। इन इनके अंग अवयव की संरचनाओं में विशेषताएँ देखने को मिलती है। उदाहरण के रूप में मासांहारी और शाकाहारी पशुओं के हाथ, पैर और नाखून, सींग खुर आदि रचनाओं में अंतर होना पाया जाता है। प्रधानत: आंतो की रचना, नाखून और दांत की रचना मौलिक रूप में पहचानने में आती है। मांसाहारी पशुओं में आंते लंबाई में छोटी होती है और शाकाहारी पशुओं की आंते बड़ी होती है। यह एक मौलिक आधार है। इसी क्रम में नाखून और दांतों की बनावट में भी अन्तर होना पाया जाता है। शाकाहारी सभी जीव होठों से पानी पीते है जबकि मांसाहारी जीव समुच्चय जीभ से पानी पीते है। सभी पशुओं में चाहे वे मांसाहारी हों या शाकाहारी वंशानुषंगीय विधि से परंपरा होना देखने को