भौतिकवाद
by A Nagraj
अभी तक मानव परंपरा में ऐसी स्थिति नहीं बन पाई है। जबकि मानवेतर प्रकृति अर्थात् पदार्थ, प्राण एवं जीव प्रकृति सानुकूलता के साथ “त्व” सहित व्यवस्था के रूप में है। इनमें सानुकूलता का अध्ययन और मानव में सानुकूलता का अध्ययन विधि का भिन्न होना पाया जाता है। इनमें पदार्थावस्था की वस्तुओं को देखने पर पता चलता है कि मानव निर्मित अधिक आवेशित वातावरण से भी स्वयं स्वभावगति में रहने की स्थिति में, स्व विकास क्रम स्थिति को प्रमाणित कर लेता है। जैसे एक परमाणु अपनी स्वभाव गति में रहते हुए एवं दूसरा परमाणु अपने आवेशित गतिवश उनमें निहित कुछ अंशों को बहिर्गत करने के लिए विवश होने की स्थिति में पहला वाला (परमाणु) अपने में उन बहिर्गत अंशों को आत्मसात करता हुआ मिलता है। इससे स्पष्ट होता है कि पदार्थावस्था में आवेशित गति भी पूरक हो पाता है, जबकि मानव आवेशित गतिवश, स्वयं भ्रमवश क्षतिग्रस्त होता ही है, अन्य को भी क्षतिग्रस्त कर देता हैं। पदार्थावस्था में अपने समृद्घ होने के लिए, जितने भी प्रकार के परमाणु अणु और अणु रचित पिण्डों के रूप में समृद्घ होने तक स्वभाव गति और आवेशित गति का परस्पर पूरक होना स्पष्ट होता है।
प्राणावस्था में वनस्पतियाँ अपनी स्वभावगति में रहने के लिए सानुकूल वातावरण चाहती है, जो पदार्थावस्था से भिन्न है। वनस्पतियाँ मूलत: बीजानुषंगीय व्यवस्था की अभिव्यक्ति है। वनस्पतियों के लिए सानुकूल वातावरण प्रधान रूप में ऋतु संतुलन है। ऋतु संतुलन का तात्पर्य आनुपातिक वर्षा का होना, आनुपातिक रूप में शीत होना, आनुपातिक रूप में उष्ण होना है। वनस्पतियों में होने वाली दिनचर्या को देखने पर पता चलता है कि ऊपर कहे तीनों प्रकार की उपलब्धियाँ किसी सीमा तक सह पाती है अर्थात् अनुकूल होना प्रमाणित हो पाता है। किसी अनुपात के अनन्तर अर्थात् किसी अवधि के कम या अधिक होने से प्रतिकूलता प्रमाणित होती है अर्थात् वनस्पतियाँ मर जाती हैं। वास्तविक रूप में उनके रचनाक्रम और वैभव क्रम में प्रतिकूलता उसकी विरचना के रूप में होना देखा जाता है। इसी घटना को मरना भी कहा जाता है।
इसका तात्पर्य यही हुआ कि संपूर्ण वनस्पतियाँ जीव शरीर और मानव शरीर भी प्राण कोशाओं से रचित है। इस कारण यह न्यूनतम अधिकतम ऊष्मा में संतुलित रहता है । इसी प्रकार न्यूनतम अधिकतम पानी को पाकर और न्यूनतम अधिकतम ठंडी को पाकर