भौतिकवाद

by A Nagraj

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विकास और जागृति क्रम में स्वतंत्रता एक मौलिक प्रकाशन है। स्वतंत्रता के लिए इकाई इसीलिए प्रवर्त होती गयी कि वातावरण और नैसर्गिकता के योगफल से प्रवर्तन होना एक अनिवार्य स्थिति रही। इसी क्रम में पूर्णता का अभीष्ट इकाई में होना एक शाश्वत स्थिति रही है इसलिए पूर्णता क्रम में विकास स्पष्ट हैं। विकास का पहला चरण अथवा पूर्णता का पहला चरण गठनपूर्णता है। ऐसी गठनपूर्ण इकाई जीवावस्था में केवल जीने की आशा से कार्यरत रही है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि पूर्णता के अर्थ में विकासक्रम अस्तित्व में नित्य वर्तमान और स्पष्ट है। पूर्णता का दूसरा चरण क्रियापूर्णता के रूप में ज्ञानावस्था का मानव अपने त्व सहित व्यवस्था के रूप में समाधान और पूर्णता का तीसरा चरण आचरणपूर्णता अर्थात् प्रामाणिकता के रूप में सर्वाधिक उपकार प्रमाणित होना चिरकालीन अपेक्षा है। यह जड़-चैतन्य के सहअस्तित्व में ही सार्थक होना पाया गया और यह समझ में आता है।

रूपात्मक अस्तित्व :-

प्रकृति की मूल इकाई परमाणु है। क्योंकि परमाणु में ही विकास होता है। प्रत्येक परमाणु गठनपूर्वक परमाणु है । प्रत्येक गठन में एक से अधिक परमाणु अंशों का होना अनिवार्य है। परमाणु के पूर्व रूप (परमाणु अंश) में विकास होता नहीं है। परमाणु के पररुप (अणु) रचनाएँ विकास की लाक्षणिकता को प्रकाशित करते है, परन्तु विकास नहीं होता है, क्योंकि विकसित इकाई अर्थात् जीवन शरीर रचना के माध्यम से प्रकाशित और संप्रेषित होता है।

विकास के क्रम में ही प्रकृति दो वर्ग व चार अवस्थाओं में प्रकाशमान है। प्रकृति के दो वर्ग जड़ और चैतन्य है। प्रकृति की चार अवस्थाएँ पदार्थावस्था, प्राणावस्था, जीवावस्था और ज्ञानावस्था है । प्रकृति में पदचक्र और पदमुक्ति का प्रभेद चार प्रकार से है। जैसे- प्राणपद चक्र, भ्रांतिपद चक्र, देवपद चक्र और पदमुक्ति (दिव्यपद या पूर्णपद)। इसी क्रम में अस्तित्व में प्रकृति का विकास और उसका इतिहास नित्य समीचीन है।

अस्तित्व में प्रकृति सहज संपूर्ण वैविध्यताएँ विकासक्रम में प्रकाशित है। यह एक अनवरत क्रिया है। अस्तित्व में विकास क्रम शाश्वत प्रणाली है, क्योंकि अस्तित्व स्वयं सहअस्तित्व होने के कारण परस्पर प्रकृति के आदान-प्रदान एक स्वाभाविक क्रिया है।