भौतिकवाद
by A Nagraj
वस्तु स्थिति सत्य, वस्तुगत सत्य की स्थिति में अध्ययनगम्य है। सहअस्तित्व में अध्ययन पूर्वक आदान-प्रदान का जो प्रवाह है, उसे देखने पर पता चलता है कि सत्ता में संपृक्त प्रकृति ही प्रधान (अथवा संपूर्ण) अध्ययन की वस्तु बन जाती है । स्थिति पूर्ण सत्ता में संपृक्त प्रकृति स्थितिशील दिखाई पड़ती है। स्थिति पूर्ण सत्ता में संपृक्त प्रकृति उसके अनन्त इकाईत्व के स्वरुपवश पहचानने में आती है। इसी क्रम में प्रत्येक इकाई दूसरी इकाई को पहचानने की व्यवस्था अस्तित्व में प्रकाशित हुई। स्थिति पूर्ण सत्ता में संपृक्त प्रकृति का पूर्ण में गर्भित होने का तात्पर्य है कि पूर्णता का अभीष्ट अथवा ऐसे अभीष्ट का मूल रूप समाये रहना। इसी सत्यतावश प्रत्येक इकाई पूर्णता के अर्थ में होने के लिए एक अनिवार्य स्थिति हुई। इसी क्रम में संपूर्ण इकाई का विकास की ओर उन्मुख होना स्वभाविक हुआ। फलस्वरुप, परस्परता में पहचान सहित आदान-प्रदान होना एक स्वाभाविक स्थिति हुई।
स्थितिशील प्रकृति की परस्परता में पूर्णता और अपूर्णता की स्थिति इस प्रकार स्पष्ट होती है कि स्थितिपूर्ण सत्ता में स्थितिशील प्रकृति अनन्त इकाईयों का समूह होने के कारण परस्परता एक अपरिहार्य स्थिति है। पूर्ण में गर्भित प्रत्येक इकाई पूर्णता के लिए ही क्रियाशील एवं विकासशील है।
स्थितिपूर्ण सत्ता में संपृक्त प्रकृति सत्ता में अनुभव पर्यन्त विकास और जागृति के लिए प्रवर्त्त है। विकास का तात्पर्य गठनपूर्णता, क्रियापूर्णता और आचरणपूर्णता और उसकी निरन्तरता से है। जागृति का तात्पर्य समाधान एवं प्रामाणिकता से है। इकाई में नियम और उसकी निरन्तरता इस तथ्य से स्पष्ट है कि इकाई में नियंत्रण और उसकी महिमा स्पष्ट होती हैं। यह इकाई + वातावरण = इकाई संपूर्ण रूप में है। यही उसकी निरन्तरता का द्योतक है।
“पूर्णता के अर्थ में अपूर्णता स्पष्ट है।” क्योंकि सह -अस्तित्व में परस्पर उपयोगिता पूरकता है। यह पूरकता पदार्थावस्था, प्राणावस्था, जीवावस्था एवं ज्ञानावस्था में प्रकाशित है। ज्ञानावस्था में मानव ही गण्य होता है। मानव जड़-चैतन्य का संयुक्त साकार रूप होने के कारण एवं ज्ञानावस्था के पद में होने के कारण कर्म करते समय स्वतंत्र, फल भोगते समय परतन्त्र होने की व्यवस्था उनमें ही समाहित है।