जीवनविद्या एक परिचय

by A Nagraj

Back to Books
Page 99

परमाणु में जो विकास है वह गठनपूर्णता के अर्थ में है। हरेक जड़ परमाणु गठनशील है। हर गठन में एक से अधिक अंश होता है। हर परमाणु में मध्यांश और उसके चारों ओर चक्कर लगाने वाले अंशों की आवश्यकता है। ऐसा अस्तित्व में स्वाभाविक रूप से होना पाया जाता है। ऐसे परमाणुओं में कम से कम दो से लेकर अनेक संख्या में अंश समाये रहते हैं। अनेक प्रजाति के परमाणु हैं, उसमें से एक प्रजाति का परमाणु हैं जीवन परमाणु। अंशों का घटना-बढ़ना जीवन परमाणु में होता नहीं है इसलिए अक्षय शक्ति, अक्षय बल संपन्न होता है इसे ही परमाणु में विकास कहते हैं। अतः जीवन परमाणु को विकसित कह रहे हैं और विकास के बाद जागृति होती है जागृति का प्रमाण है जानना-मानना, पहचानना, निर्वाह करना परमाणु अंशों में होता है। एक परमाणु अंश दूसरे परमाणु अंश को पहचानता है इसलिए निश्चित दूरी में रहकर व्यवस्था को समीकरण किये हैं। व्यवस्था के रूप में कार्य कर रहे हैं। यही भौतिक रासायनिक क्रियाकलाप के रूप में गण्य होता है। रासायनिक क्रियाकलाप की चर्मोत्कर्ष रचना इस धरती पर मानव के शरीर के रूप में प्रमाणित है। शरीर को जीवन मान लिया।

प्रश्न :- आप दिल्ली में भारत के चीफ जस्टिस वेंकट चलैय्या जी से मिले थे और सार्वभौम न्याय के बारे में उनसे पूछा था जिसका उत्तर उनके पास नहीं था। भारत में न्याय अलग, पाकिस्तान में न्याय अलग। भारत में ही हिन्दु के लिए अलग न्याय और मुस्लिम के लिए अलग न्याय इस तरह न्याय के बारे में बहुत भ्रम है। आपने कहा न्याय परिवार में प्रमाणित होता है जबकि हम सोचते हैं न्याय अदालत में होता है स्पष्ट करें।

उत्तर :- सूत्र रूप में कहा गया है “संबंध, मूल्य, मूल्यांकन, उभयतृप्ति” यही न्याय है। संबंध का मूल्यांकन होना, उभयतृप्ति होना बहुत जरूरी है। मनुष्य के साथ जड़ चैतन्य का संबंध रहता ही है। चाहे आप नकारो चाहे स्वीकारो। जैसे हवा के साथ संबंध। नैसर्गिकता के साथ संबंध न रहे, मानव के साथ संबंध न रहे ऐसा कुछ आप बना नहीं सकते। यह सब मानव परिवार में ही मिलता है। जबकि न्यायालय में फैसला होता है, न्याय नहीं।