जीवनविद्या एक परिचय

by A Nagraj

Back to Books
Page 98

प्रश्न :- डार्विन ने भी विकास का सिद्धान्त बताया था जो आज भी मान्य है। आपके विकास के सिद्धान्त और डार्विन के विकास में क्या अंतर है?

उत्तर :- डार्विन जो भी प्रस्तुत किया शरीर रचना के आधार पर विकास को प्रस्तुत किया। जैसे एक कीड़े की रचना, जोंक की रचना, घोड़े की रचना, गाय की रचना वैसे ही मनुष्य की रचना। इसमें आधार बनाया हड्डियों को। हड्डियां किस प्रकार कितना लंबा, कितना चौड़ा हुआ इसको विकास बताया उन्होंने। मनुष्य के शरीर को ध्रुव मान लिया। मनुष्य के शरीर रचना को आधार बनाया इसके पीछे के शरीर रचनाओं को जोड़ लिए और इसके बाद ये बना है, इसके बाद में ये बना ऐसा वो कहते हैं। डार्विन का शरीर रचना के अर्थ में जो कहना हैं इसमें थोड़ी तकलीफ है, लेकिन मानव के अर्थ में कहना पूरा तकलीफ है। डार्विन के अनुसार बन्दर का क्रमश: रूपान्तरण होते हुए मानव शरीर बना और इसके बीच में भी कई जीव शरीर बने जो बाद में नष्ट हो गये। जबकि हमारे अनुसार किसी न किसी समृद्ध मेधस सम्पन्न जीव के गर्भाशय में, प्राणसूत्र में अनुसंधान का उद्देश्य ऐसे शरीर रचना की परंपरा को स्थापित करना रहा, जिसके माध्यम से जीवन अपनी जागृति को प्रमाणित कर सके। जबकि डार्विन के अनुसार नैसर्गिकता व वातावरण के दबाव में ये अनिश्चित शरीर रचनाएँ घटित हुई। जीवन ज्ञान डार्विन को था नहीं। जीवन को ध्रुव मानकर उन्होंने कुछ कहा नहीं। जीवन और शरीर के संयुक्त रूप में ही मानव होता है। अभी भी विकास को खोजते हैं तो शरीर में, हड्डियों में खोजते हैं और उसके लिए नोबेल प्राइज होते हैं, डिग्रियाँ होती है, नौकरियां होती है उनके विकास का ध्रुव है मानव शरीर। तो उनके अनुसार शरीर को तैयार करके मानव बन जाना था वह हुआ नहीं। मानव, शरीर की हड्डियों के दायरे में व्याख्यायित होती नहीं। इसकी गवाही है डार्विन ने खुद ही लिखा है कि मैं स्वयं शरीर के हड्डियों के दायरे में व्याख्यायित नहीं होता हूँ। वह मानव को व्याख्यायित करने में असमर्थ था। रचना विधि में आप श्रेष्ठता को विकास कहते हैं। जबकि विकास का जो ध्रुव बिन्दु है वह जीवन है। जीवन के बिना शरीर कुछ काम नहीं कर सकता। शरीर को जीवित बनाये रखने वाला जीवन ही है। न केवल जीवन के आधार पर, न केवल शरीर के आधार पर, ‘मानव’ जीवन और शरीर के संयुक्त आधार पर है।