जीवनविद्या एक परिचय
by A Nagraj
उपजाएं और फिर सुखी हों ऐसा बनता नहीं। समाधान, समझदारी हमारी जागृति विधि से बुद्धि में निहित है ही। समझदारी के आधार पर भौतिक वस्तुओं को उपजाना बनता है और सदुपयोग करना।
हम समाधानित हों हमारे पास कोई भौतिक वस्तु न रहे ऐसा हो नहीं सकता। समाधान के साथ भौतिक वस्तु भी अपनी समृद्धि के अर्थ में समाहित रहती है यह परिवार में स्पष्ट है। इस संतुलित विधि से हम सुखी होने का मार्ग प्रशस्त करते हैं। इन्हीं आवश्यकता को धार्मिक आवश्यकता कहते हैं। अभी तक कोई भी संप्रदायगत रूढ़ियाँ न तो सार्वभौम हुई और न आगे होगा। सार्वभौम होना एक ही बात का होगा कि मानव का व्यवस्था में जीना, सर्वशुभ, सुख। मानव व्यवस्था में जीना और समग्र व्यवस्था में भागीदार होना हमको समझ में आता है। हमसे किसी को परेशानी होती नहीं है। इस प्रकार से हम इस निष्कर्ष पर आते हैं कि मानव धर्म समाधान पूर्वक सुख है। व्यवस्था के रूप में जीने के फलस्वरूप हम निरंतर समाधानित रहते हैं और निरंतर सुखी रहते हैं। जीवन ही सुखी होता है तो व्यवहार में समाधान प्रमाणित हो जाता है। व्यवहार में प्रमाणित होने के कारण ही यह स्वीकार पाते हैं कि मनुष्य सुखी है।
मानव समाधान सहित स्वभाविक रूप में चाहे काले हों, गोरे हों, बली हों, निर्बली हों, धनी हों, गरीब हों, सभी लोग सुखी होना चाहते हैं इसमें कोई दो मत नहीं है। सुखी होने की प्रक्रिया के बारे में बताया गया अभी तक इन्द्रिय संवेदना में सुख खोजने की बात आदि काल से हुआ किन्तु उससे संभव नहीं हुआ। फलस्वरूप समझदारी के आधार पर सुखी होने की बात अभी स्पष्ट हुई है। मानव स्वयं को और अस्तित्व को समझ ले यही समझदारी है।
अस्तित्व एक शाश्वत सत्य है, न घटता है, न बढ़ता है, इसका क्या प्रमाण है? अभी हमारे सामने जितना भी है वर्तमान है। वर्तमान कभी समाप्त होता नहीं वर्तमान निरंतर बना ही रहता है। इस धरती पर चारों अवस्था रहे या एक अवस्था। न्यूनतम एक अवस्था बना ही रहता है। भौतिक वस्तुएं निरंतर बनी ही रहती है इनका कभी नाश नहीं होता। भौतिक वस्तु ही रासायनिक वस्तु में प्रकाशित होते हैं जिसे रासायनिक उर्मि कहते हैं। दो तरह के वस्तु मिलकर अपना अपना आचरण