जीवनविद्या एक परिचय
by A Nagraj
धरती, मानव को सुरक्षित विधि से जीने का विधान बनाती रही है, किन्तु मानव ने अपनी बुद्धि से सारी धरती के साथ विद्रोह किया, धरती पर आक्रमण तथा शोषण किया। आदिकाल से ही मानव धरती के वातावरण को बिगाड़ने में लगा है। विज्ञान युग के बाद ज्यादा बिगड़ाव हुआ, इसलिए हम संकटग्रस्त हो गये हैं। कोई आदमी नदी में डूबता है तो उभरता भी है ये संभावना रखी हुई है। तो धरती को बचाने की संभावना को हम आचरण करना चाहते हैं कि नहीं, यह हमारे विचारों के ऊपर है। विचारों से परिस्थितियाँ बन जाती हैं अगर चाहते हैं तो परिस्थितियाँ अनुकूल हो जाती हैं, नहीं चाहते हैं तो प्रतिकूल हो जाती है। अपनी बुद्धि भ्रमित होने के कारण वास्तविकता का, प्रकृति के वातावरण की महिमा का मूल्यांकन करने में चूक गये। फलस्वरूप हम विविध प्रकार से क्षतिग्रस्त हुए और प्रकृति को क्षतिग्रस्त किये। क्षतिग्रस्त करते तक हम खुशहाली मनाएं लेकिन स्वयं क्षतिग्रस्त होने की संभावना से डरते भी हैं। यह हुआ विगत का विश्लेषण। मानव संचेतना से यदि मानव व्यवस्था में जीने को तत्पर होता है तभी जीवन विद्या एक दूसरे के पास पहुँचता है इसका प्रमाण मिल चुका है। इसको हम एक स्कूल में तैयार कर पायें हैं। इसके शुभ परिणामों को देखते हुए इसके लोकव्यापीकरण की आवश्यकता है।
नासमझी के बिना कोई मानव कुकृत्य करता नहीं है। मेरे अनुसार हर व्यक्ति शुभ चाहता है और शुभ के लिए जिम्मेदार है। फलस्वरूप कभी न कभी सर्वशुभ के प्रति जिम्मेदारी महसूस करेगा। यह सर्वशुभ को महसूस करने के अर्थ में ही जीवन जागृति की बात आती है। सुविधा संग्रह से मुक्ति और भक्ति-विरक्ति के स्थान पर स्वस्थ समाज की रचना के लिए ही समझदारी की बात, जीवन जागृति की बात छेड़ने का मन आया। बुद्धि में होने वाली बोध और संकल्प क्रिया का प्रमाणीकरण तभी हो पाता है जब बुद्धि में न्यायबोध, सत्य बोध, धर्म बोध हो जाए। जब ये तीनों बोध हो जाते हैं तो बुद्धि को सद्बुद्धि कहते हैं। फलस्वरूप सर्वशुभ की जिम्मेदारी को मानव स्वीकार करता है। अस्तित्व को समझने पर सहअस्तित्व के रूप में नित्य वर्तमान होना हमको बोध होता है। जिसका हम अध्ययन कराते हैं।