जीवनविद्या एक परिचय
by A Nagraj
प्रकृति सहज, सहअस्तित्व सहज परिपूर्ण प्रक्रिया है। समझने वाली वस्तु भी जीवन है जो समझेगा वह भी जीवन है। आदर्शवादियों के अनुसार दृश्य, दर्शन, दृष्टा तीनों एक होने पर ही मुक्ति होती है। उनके अनुसार ईश्वर ही दृश्य है, ईश्वर ही देखने वाला है, ईश्वर ही दर्शन है। इन्हीं आधारों पर बहुत सारा वांङमय रचा गया है। इसके बाद भी ईश्वर कैसा है? कहाँ है? क्यों है? ये समझ में नहीं आया। इसके बाद भी ईश्वर के आधारित बात मानव सुनता है, अच्छा लगता है। यह बात देखा गया है अच्छा लगने में, अच्छा होने में दूरी यथावत बना हुआ है। इसके बाद मानव को यंत्र बताने लगे वो भी हो नहीं पाया लेकिन बताते ही रहे। जैसे ईश्वर को बता नहीं पाये फिर भी बताते ही रहे। इस ढंग से हम फंस गये हैं इससे हटकर कुछ सोच नहीं पाते। इससे छुटकारा पाने की विधि है कि जीवन तो नित्य है। शरीर तो जीवन के लिए बारम्बार घटना है।
शरीर की रचना गर्भाशय में होती है। अस्तित्व सहज विधि से परमाणु विकसित होकर जीवन पद में आता है। शरीर बारम्बार रचित व विरचित होता है। प्राणावस्था की एक सीमा है उसके बाद वह विरचित हो जाता है। शरीर भी प्राणकोशों से रचित इकाई है। शरीर रचना में जितना संपन्न मेधस हो सकता था वह मानव शरीर रचना में निहित है। इस आधार पर मैं इस बात को सत्यापित कर रहा हूँ कि मानव संपूर्ण अस्तित्व को दूसरे को संप्रेषित कर सकता है। इससे ज्यादा मेधस का कोई प्रयोजन भी नहीं है। इस आधार पर मानव की शरीर रचना (प्राणसूत्र रचना विधि के आधार पर अनुसंधान होते बनी) श्रेष्ठतम हो गई है और भी कोई चीज बची होगी वह भी आगे पूरी हो जायेगी। इस बीच शरीर यात्रा में हमको क्या करना है? जीवन जागृति को प्रमाणित करना है। इस क्रम में हम जैसे ही शुरू किये, संवेदना के छुपने का काम हुआ नहीं। न विज्ञान विधि से न आदर्शवादी विधि से। संवेदनाओं के विरोध में बहुत सारे तप बताये गये हैं। बहुत से तपस्वी हुए इस धरती पर किन्तु इन तपस्या के परिणाम में एक निश्चित समझदारी जिसके लिये मानव तरस रहा है वह व्यवहार में, परंपरा में आया नहीं। अब तपस्वी क्या खोये क्या पाये ये तो वही सत्यापित करेंगे। सामान्य लोग ऐसे तपस्वी से सिद्धि चमत्कार की अपेक्षा किये हैं। उसके पीछे लट्टू होकर घूमे हैं। मैं बता दूं कि अस्तित्व में न सिद्धि है न चमत्कार है, अस्तित्व में निश्चित