जीवनविद्या एक परिचय

by A Nagraj

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व्यवस्था है, निश्चित परिणाम है, निश्चित उपलब्धि है, निश्चित मंजिल है, इसकी निरंतरता है, इसको मैंने देखा है, समझा है। ऐसे निश्चित मंजिल के लिये हम आप प्रत्याशी हैं। निश्चित विधि से ही वह निश्चित मंजिल मिलने वाला है। मानव का अध्ययन छोड़कर, काकरोच को सर्वाधिक विकसित प्राणी बताकर, रासायनिक खाद बनाकर, कीटनाशक बनाकर हम मानव की मंजिल नहीं पायेंगे। मानव की मानसिकता को धन के रूप में, शोषण के रूप में प्रयोग करके भी मानव अपनी मंजिल को नहीं पायेगा। इसका नाम दिया है ‘इन्टेलेक्चुअल प्रापर्टी राइट’। विश्व की सर्वोपरि संस्थायें और न्यायालय भी इसे स्वीकारना चाह रहे हैं। जीवन की अक्षय शक्तियाँ है उसको कहाँ शामिल किया जाये। उसको भोगद्रव्य के रूप में कैसे उपयोग किया जाये इसका उत्तर कोई देगा? क्या जीवन को समझकर ऐसा प्रस्ताव रखा है? यह कहाँ तक मानव जाति के लिए उपकारी है? मेरा अनुभव यह कहता है मानव की जीवन शक्ति को कितना भी उपयोग करें वह घटने वाली नहीं है। इसे आप अनुभव करें करोड़ों आदमी अनुभव करके देख सकते हैं। जीवन शक्तियों का जितना भी उपयोग करें, शक्तियाँ और ताजा व प्रखर होती है। जितना आज उपयोग किया कल उससे ज्यादा प्रखर हो जाती है।

इस विधि से जीवन शक्तियों का कितना भी उपयोग करें वे खत्म होती नहीं है। उनको तादाद में बांध नहीं सकते। बांधने जाओगे तो बांधने वाला ही विकृत होगा। इस प्रकार बुद्धिवाद से भी हम कैसे गिरवी करते हैं, दास बनते हैं, शोषण का आधार बनाते हैं इसका नमूना है यह। मैं समझता हूँ यह मानव विरोधी है, सहअस्तित्व विरोधी है बुद्धि को शोषण का आधार बनाकर, द्रोह-विद्रोह का आधार बनाकर, बपौती बनाकर, हमारा बुद्धि के लिए आपको टैक्स देना है ऐसा बताकर हम समाज बनाने की घोषणा करते हैं। यह क्या सच्चा हो सकता है? यह सोचने का मुद्दा है। मेरे अनुसार यह सर्वथा मिथ्या है। बुद्धि को कोई सीमित किया नहीं जा सकता और सब मानवों की बुद्धि अक्षय है इसलिये उसे सीमा में पुस्तकों में बांधा नहीं जा सकता। हम जितने वाङ्गमय लिखा हूँ उससे भी बहुत बड़ा में स्वयं को अनुभव किया हूँ। जितने भी यंत्र बने हैं उससे मैं बड़ा हूँ। मानव जाति बड़ा है ही। मानव ने ही सब किताबों को लिखा है और सब किताबों से बड़ा हर मानव है। यहाँ पर आये बिना हम अपनी सद्बुद्धि को प्रयोग करेंगे यह हमको दिखता नहीं।