जीवनविद्या एक परिचय
by A Nagraj
ही है। अब आदमी एक दूसरे को कैसे सिखाए? मारपीट कर तो कोई किसी को कुछ समझा नहीं पाया है। आजीविका के भय से आदमी जितनी देर नियंत्रित रहता है, उसके बाद भय का कवच भी उतार कर रख देता है। इसका उदाहरण इतिहास में दास-दासी प्रथा के अंत के रूप में मिलता है। संवेदनशीलता में भय और प्रलोभन होता ही है। भय और प्रलोभन के ही आधार पर सारे राष्ट्र, सारे धर्म, सारी प्रौद्योगिकी व्यवस्था, व्यापार संस्था व्यवस्था देने का दावा करते हैं। जबकि ना भय व्यवस्था है और ना प्रलोभन व्यवस्था है क्योंकि मानव को न भय स्वीकार होता है न प्रलोभन। तो क्या होना चाहिए मानव के पास; मूल्य और मूल्यांकन। मूल्यों को पहचानने की विधि चाहिए। मूल्यांकन करने की तकनीक होनी चाहिए। ये दोनों चीज हमारे पास रहने से निरंतर समाधान की परंपरा चलेगी। मूल्य और मूल्यांकन भी समझदारी की ही प्रक्रिया है। यह शरीर की शारीरिक, यांत्रिक प्रक्रिया नहीं है। अभी तो विज्ञान का कहना है सभी चीज यांत्रिक है, कुछ भावुक नहीं है। तो यांत्रिकता में भय और प्रलोभन से जूझते रहो। यांत्रिक विधि से सोचते-करते मानव यहाँ तक पहुँच गया कि यह धरती रहेगी अथवा नहीं? इसी पर प्रश्न चिन्ह लग गया।
समस्या का निराकरण समस्या से तो होगा नहीं, चाहे कितनी भी समस्यायें एकत्रित कर लो। समस्या का निराकरण समाधान से ही होगा। समाधान के बिना हमको राहत नहीं है। समाधान पाने के लिए चेतना विकास मानव चेतना पूर्वक मूल्य और मूल्यांकन विधि से व्यवस्था का समीकरण करने वाली पद्धति को हमें विकसित करना है। इस तरह जीवन संबंध, जीवन तृप्ति, जीवन लक्ष्य को केन्द्र में रखकर व्यवस्था समीकरण करेंगे तो हम सफल हो जाऐंगे। यदि जीवन को भुलावा देकर शरीर के अर्थ में हम जितने भी व्यवस्था देते हैं उससे अव्यवस्था ही पैदा होगी। शरीर को अच्छा लगने से सदैव अच्छा होता नहीं है। कोई भी शरीर क्रिया सतत् बनी नहीं रहेगी। ‘शरीर’ क्रिया को बारम्बार बदलना ही है। ‘जीवन’ सतत् बना ही रहता है। इसलिए जीवन के आधार पर निर्णय लेने की सद् बुद्धि की आवश्यकता है। जीवन सब मानव में समान है, जीवन की ताकत समान है, जीवन में बल और शक्ति अक्षय है। ये न कभी खत्म होता है न घटता है। ये क्यों नहीं घटता? जीवन परमाणु में परिणाम में कोई परिवर्तन होना नहीं है। तो उसका बल