जीवनविद्या एक परिचय

by A Nagraj

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जीवन विद्या : एक परिचय

मानव बंधुओं ! मैं अपने में से ही स्वेच्छापूर्वक विगत वैदिक वांङ्गमयों को सुना हूँ। इसमें और किसी का दबाव नहीं रहा। समझने के बाद मेरी एक कामना हुई। कैसा होना चाहिए इस धरती पर मानव? उसके लिए मैं अपने में ही एक उद्गार पाया वह है “भूमि स्वर्ग हो, मानव देवता हो! धर्म सफल हो, नित्य शुभ हो।”

भूमि स्वर्गताम् यातु, मनुष्यो यातु देवताम्।

धर्मो सफलताम् यातु, नित्यम् यातु शुभोदयम् ॥

ये कैसे उद्गमित हुआ इसकी पृष्ठभूमि मैं आपके सम्मुख रखना चाहता हूँ। यह शरीर यात्रा एक परिश्रमी, सेवाकारी, वैदिक धर्मपरायण, आर्यश्रेयवादी परिवार में प्रारंभ हुई। यह तो आप सबको विदित है कि हर मानव संतान किसी ना किसी माँ की कोख से पैदा होता है; किसी ना किसी धर्म को मानने वाला होता ही है; किसी ना किसी राज्य संविधान को स्वीकारा ही रहता है। परंपरा में प्राप्त शिक्षा में अर्पित होता ही है और शिक्षाविदों के अनुसार चलकर देखता है। यह आज तक की परंपरा की बात रही। उसी विधि से मैं भी जहां से शुरू किया, जिस परिवार में शुरू किया इसी सबसे गुजरने लगा। इसके साथ रूढ़िगत परंपरा की बातें इसके साथ बैठो, इनके साथ नहीं बैठो, ये करो, ये ना करो ये सब बातें जबसे शुरूआत की है इन रूढ़ियों से हमारा मन भरा नहीं। ये बचपन की ही बात है। पहले-पहले ये बचपन की बात है (बच्चा है) ऐसा बुजुर्ग लोग भी सोचते रहे। कुछ दिनों बाद वे लोग भी बदलने लगे। दृष्टियाँ, मुद्रा, भंगिमा, त्यौरी सब बदलने लगे। मुझे लगा हमारे बुजुर्ग मुझ से प्रसन्न नहीं हैं। प्रश्न का पहला कारण हमारा ये बना। किन्तु प्रसन्न भी कैसे किया जाए भाई ! जैसा ये कहे वैसा ही करें तो भी हम कसौटी लगाने लगे। सब दिन सब समय ये प्रसन्न नहीं रहते हैं? ऐसा मुझको दिखा है। मुख्य बात यहाँ से है। जब मुझको ये लगने लगा कि हमारे बुजुर्ग हमको ऐसा करो वैसा नहीं करो कहते हैं वैसा खुद करते हैं या नहीं करते है किन्तु सब दिन सब समय प्रसन्न नहीं हैं। जबकि उनसे ज्यादा आर्यश्रेय, वाङ्मय के विद्वानों को कहीं पाया नहीं जा