जीवनविद्या एक परिचय

by A Nagraj

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से मन में कितना क्रियाकलाप होता है वृत्ति में कितना, बुद्धि में कितना, आत्मा में कितना होता है इसको स्पष्ट करने की कोशिश की है। इसका क्या प्रयोजन? इससे यह प्रयोजन है एक के बाद एक जो सुनने में आया और समझ में आया तो तृप्ति बिंदु के लिए अनुभव करना बन ही जाता है, उसे दूसरों को बोध कराने की अर्हता आती है। दूसरों को बोध के बाद ही हमारी संपदा का प्रमाण है। हम दूसरों को समझाते हैं तो हमारी समझदारी का प्रमाण है। हम निरोगी है तो दूसरों को निरोगी बनाने में हमारा धन प्रमाणित होता है। हम धनी हैं दूसरों को धनी बना दें तभी हमारे धनी होने का प्रमाण होता है। इस ढ़ंग से सरलता से सामाजिक होने की रीति आती है। अभी तक मनुष्य संवेदनशीलता में ही जीता रहा है इसलिए संग्रह, सुविधा, द्रोह-विद्रोह, शोषण की बात आती रही है। इस ढ़ंग से मानव संचेतनावादी मनोविज्ञान का मूल रूप स्पष्ट होता है वह मूलत: जीवन की क्रिया ही है जानने के लिए मानना हुआ तो जानने के आधार पर प्रवर्तित होते हैं और पहचानने व निर्वाह करने के क्रम में हम अपने आप से न्यायिक हो जाते है, नियंत्रित हो जाते है, संतुलित हो जाते है, सुखी हो जाते है। ये ही कुल मिलाकर मानव संचेतनावादी मनोविज्ञान का प्रयोजन है।

प्रश्न :- बाबा जी आज धरती पर हजारों चिकित्सा पद्धतियाँ है, इतने मानवों का श्रम उसमें लगा है इतना धन नियोजित होने के बाद भी मानव जाति का स्वास्थ आज भी बिगड़ा हुआ है। जितना धन लगाया जा रहा है, जितने यंत्रों का अनुसंधान किया जा रहा है उसके बावजूद भी रोगों की संख्या बढ़ती जा रही है। नये-नये रोग पैदा होते जा रहे हैं। पुरानी पद्धति से भी जैसा दावा किया जाता है वैसी उपलब्धि नहीं होती और आधुनिक पद्धतियों से भी जो बात कही जाती है वो प्रमाणित नहीं होती। इस संबंध में आप जीवन विद्या से स्वास्थ्य-संयम के आधार पर कैसे स्वास्थ्य को पहचानना चाहेंगे।

उत्तर :- आपने जो बोला यह प्रश्न कम ज्यादा सभी का है। इतना सब प्रयत्न विशेषज्ञता के लिए है। जबकि विशेषज्ञता एक भूत है, पिशाच की तरह है। वो सबको मार देता है। हम विशेषज्ञ है इसलिए हम जो कहते हैं वह सही है ऐसा मान लेने के आधार पर सर्वाधिक अपराध हुआ। उसमें सबसे ज्यादा अपराध उन्हीं