अर्थशास्त्र
by A Nagraj
धरती का सौंदर्य विधान विकासक्रम में अथक श्रमपूर्वक सज-धज कर तैयार हुआ है। इसको ऐसा देखा जाता है कि पदार्थावस्था अपने अथक श्रम कार्य और सहअस्तित्व प्रभाव के संयोगवश ही ठोस, तरल, वायु के रूप में और भौतिक रासायनिक रचना-विरचना के रूप में दृष्टव्य है। इसका कोई काल गणना ही नहीं है। काल गणना का जो कुछ भी प्रयोजन, नियोजन मानव में, से, के लिए है। जीव कोटि में भी इस बात को उनके दिनचर्या के रूप में देखा जाता है। विकसित धरती के आचरण को ऋतुमान के रूप में देखा जाता है। यह तभी घटित हुआ है जबसे इस धरती में रासायनिक-भौतिक रचनाएँ-विरचनाओं परंपराओं के रूप में स्थापित हो चुकी हैं। आवर्तनशीलता का स्वरूप यह धरती के ऋतुकाल के रूप में है। जीवों में जीव शरीरों और मानव शरीरों के रचनाएँ-विरचना की आवर्तनशीलताएँ वंशानुषंगीयता के रूप में, सम्पूर्ण वनस्पति जगत में आवर्तनशील परंपराएँ बीजानुषंगीय विधियों से होना और सम्पूर्ण पदार्थ संसार परिणामानुषंगीय विधि से अपने-अपने व्यवस्थाओं को बनाए रखना देखा जाता है।
विज्ञान युग आने के उपरांत उन्माद त्रय का लोकव्यापीकरण कार्यों में शिक्षा और युद्ध एवं व्यापार तंत्र का सहायक होना देखा गया। यही मुख्य रूप में धरती को तंग करने में सर्वाधिक लोगों के सम्मतशील होने में प्रेरक सूत्र रहा। यह समीक्षीत होता है कि सर्वाधिक मानव मानस वन, खनिज अपहरण कार्य में सम्मत रहा। तभी यह घटना सम्पन्न हो पाया। यहाँ इस बात को स्मरण में लाने के उद्देश्य से ही जन मानस की ओर ध्यान दिलाना उचित समझा गया कि धरती का पेट फाड़ने की क्रिया को मानव ने ही सम्पन्न किया। इस धरती का या हरेक धरती का दो ध्रुव होना आंकलन गम्य है। मानव इस मुद्दे को पहचानता है। इस धरती के दो ध्रुवों को मानव भले प्रकार से समझ चुका है। इसी को दक्षिणी ध्रुव-उत्तरी ध्रुव कहा जाता है। इसे पहचानने के क्रम में धरती के सम्पूर्ण द्रव्यों और वस्तुओं के साथ-साथ उत्तर के ओर चुम्बकीय धारा प्रवाह और प्रभाव बना ही रहती है। ये धारा प्रवाह धरती ठोस होने का आधार बिन्दु है। क्योंकि परमाणु में ही भार बंधन, अणु-बंधन के कार्य को देखा जाता है। यही क्रम से ठोस होने के कार्यकलापों को सम्पादित कर लेता है। शरीर रचना में सभी अंग-अवयव एक साथ रचना क्रम में समृद्ध होकर सर्वांग सुन्दर हो पाता है। इसी क्रम में अपने आप में सर्वांग सुन्दर होने के कार्यकलाप क्रिया को यह धरती स्पष्ट कर चुकी है। इसके प्रमाण में ठोस, तरल, विरल और रासायनिक-भौतिक रचना-विरचना धरती के सतह में नित्य प्रसवन के