मानवीय संविधान

by A Nagraj

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  • जीवन ज्ञान में मन, वृत्त, चित्त, बुद्धि, आत्मा में निश्चित क्रियाकलापों का अध्ययनपूर्वक बोध, अनुभव, अनुभवपूर्वक बोध है। अनुभव प्रमाण ही परम है।
  • मन, वृत्ति, चित्त, बुद्धि, आत्मा में परावर्तन प्रत्यावर्तन द्वारा मानव में प्रमाण बोध होता है। अध्ययन पूर्वक अनुभव बोध, अनुभव प्रमाण बोध होता है।
  • जीवन में अनुभव प्रमाण का परावर्तन बोध सहित होना प्रमाणों का नित्य स्रोत है।
  • जीवन जागृति अनुभव सहज प्रयोजन होने का बोध व प्रमाण समाधान है।
  • मानव में जीवंतता का तात्पर्य शरीर व जीवन संयुक्त रहने तक है।
  • सभी अंग अवयव सहित शरीर को जीवन ही जीवंतता प्रदान कर स्वस्थ सुरक्षित बनाये रखता है। फलस्वरूप जीवन अपनी जागृति को प्रमाणित करता है। यही जीवंतता का तात्पर्य है।
  • मन में आशा, वृत्ति में विश्लेषण, चित्त में चित्रण के योगफल में मनाकार साकार होता है। यह सभी समुदाय परंपरा में स्पष्ट है। ऐसे समुदायों में मन:स्वस्थता सहज आवश्यकता बना ही रहता है।
  • सीमायें अवस्था व पदों के आधार पर अखण्डता का बोध, भ्रमवश एक-एक समुदाय समूह के रूप में वर्तमान है। जीवन नित्य है इसलिए जीवन में आशा व सुख धर्म प्रमाणित होना निश्चित है।
  • अस्तित्व धर्म शाश्वत् पदार्थावस्था में द्रष्टव्य है। पुष्टि धर्म देशकालीय प्राणावस्था में स्पष्ट है। आशा धर्म जीवावस्था में स्पष्ट है। मानव में सुख धर्म प्रतिष्ठा स्पष्ट है। यही जागृति है। समाधान = सुख; समस्या = दु:ख।

जागृति जीवन में, से, के लिए सहज प्रतिष्ठा है। शरीर रचनानुसार वंश रूप में स्पष्ट है। मानव धर्म सुख है क्योंकि जीवन नित्य है। मानव धर्म जागृतिपूर्वक प्रमाण व अक्षुण्ण है। जीवन सहअस्तित्व में अनुभवपूर्वक प्रमाण है। मानव तथा जीवों की शरीर रचना के मूल में रसायन द्रव्य प्राण कोषा के रूप में है। यह रसायन भौतिकता का वैभव है।