मानवीय संविधान
by A Nagraj
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- हर मानव ‘है’ का अध्ययन करता है। ‘होना’ ही ‘है’ के रूप में वर्तमान है।
- ‘होना’ और ‘है’ निरंतरता के अर्थ में रहना स्पष्ट है निरंतरता सूत्र अर्थात् व्यापक वस्तु में सम्पृक्त प्रकृति सम्पूर्ण एक-एक अथवा चारों अवस्था, चारों पद सम्पृक्त हैं। यही सम्पूर्ण अस्तित्व है।
- भौतिक, रासायनिक और जीवन क्रिया का अध्ययन इनके मूल में परमाणु ही स्वयं स्फूर्त विधि से क्रियाशील होने रहने का अध्ययन है। स्वयंस्फूर्तता साम्य ऊर्जा सम्पन्नता में है।
- जागृत मानव ज्ञानावस्था व देव पद में होने के आधार पर, जीवन और शरीर का संयुक्त रूप में अध्ययन और जागृति पूर्ण विधि से जीने का अध्ययन है।
- जागृति अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था में जीने का अध्ययन साथ में जीवन लक्ष्य, मानव लक्ष्य, नियति लक्ष्य सार्थक सूत्र-व्याख्या ज्ञानपूर्वक सफल होने के लिए अध्ययन सुलभ है।
- सर्वशुभ ज्ञान, ज्ञान-विवेक-विज्ञान पूर्ण कार्य व्यवहार व्यवस्था, फल परिणाम के फलन में अखण्ड समाज सार्वभौम व्यवस्था सहज वर्तमान ही अभ्युदय सर्वतोमुखी समाधान, समृद्धि, अभय, सहअस्तित्व है।
- प्राणपद, भ्रातंपद, देवपद, दिव्यपद में सम्पूर्ण जड़-चैतन्य प्रकृति विद्यमान है। मानव परंपरा में देवपद, दिव्यपद परंपरा ही जागृति सहज प्रमाण हैं।
- मानव में, से, के लिए अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिंतन ही समझदारी सहज सम्मान व प्रमाण है।
- अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिंतन सहअस्तित्व रूपी अस्तित्व में विकास क्रम, विकास, जागृति क्रम, जागृति समझ में परिपूर्णता है। समझदारी में परिपूर्णता का तात्पर्य मानवत्व सहित व्यवस्था, समग्र में भागीदारी प्रमाणित होने से है।
- मानव में, से, के लिए सहअस्तित्व सहज, सम्पूर्ण समझ ही परिपूर्णता है।
मानव कल्पनाशीलता कर्म स्वतंत्रता सहज बहुआयामों में प्रवर्तनशील है। इसलिए सहअस्तित्व सहज प्रमाण सम्पन्न होना भावी है।