अध्यात्मवाद

by A Nagraj

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रूप में स्पष्ट हुआ। जीवन सहअस्तित्व में अविभाज्य वर्तमान होने के आधार पर जीवन का अस्तित्व भी सहज होना पाया जाता है।

प्रमाणों के मुद्दों पर अध्यात्मवाद सर्वप्रथम शब्द को प्रमाण मान लिया गया। तदनन्तर, पुनर्विचार पूर्वक आप्त वाक्यों को प्रमाण माना गया। तीसरा प्रत्यक्ष, आगम, अनुमान को प्रमाण माना गया। ये सभी अर्थात् तीनों प्रकार के प्रमाणों के आधार पर अध्ययनगम्य होने वाले तथ्य मानव परंपरा में शामिल नहीं हो पाये। इसी घटनावश इसकी भी समीक्षा यही हो पाती है यह सब कल्पना का उपज है। शब्द को प्रमाण समझ कर कोई यथार्थ वस्तु लाभ होता नहीं। कोई शब्द यथार्थ वस्तु का नाम हो सकता है। वस्तु को पहचानने के उपरान्त ही नाम का प्रयोग सार्थक होना पाया गया है। इसी विधि से शब्द प्रमाण का आशय निरर्थक होता है। “आप्त वाक्यं प्रामाण्यम्।” आप्त वाक्यों के अनुसार कोई सच्चाई निर्देशित होता हो उसे मान लेने में कोई विपदा नहीं है। जबकि चार महावाक्य के कौन से चार महावाक्य रूप में जो कुछ भी नाम और शब्द के रूप में सुनने में मिलता है उससे इंगित वस्तु अभी तक अध्ययन परंपरा में आया नहीं है। आप्त वाक्य जब अध्ययनगम्य नहीं है, मान्यता के आधार पर ही है, तर्क तात्विकता की कड़ी है, अध्ययन तर्क संगत होना आवश्यक है। ऐसे में आप्त पुरूषों को भी कैसे पहचाना जाए? यह प्रश्न चिन्हाधीन रह गया। कोई भी सामान्य व्यक्ति भय, प्रलोभन और संघर्ष से त्रस्त होकर किसी को आप्त पुरूष मान लेते हैं तब उन्हीं के साथ यह दायित्व स्थापित हो जाता है आपने कैसे मान लिया। इसके उत्तर में बहुत सारे लोग मानते रहे, अथवा मैं अपने ही खुशी से मान लिया हूँ - यही सकारात्मक उत्तर मिलता है। ऐसा बिना जाने ही मान लेने के साथ ही सम्पूर्ण प्रकार से कल्याण होने का आश्वासन भी देते हैं साथ ही सारे मनोरथ या मनोकामना पूरा होने का आश्वासन देते हैं। ऐसा आश्वासन स्थली, आश्वासन देने वाला व्यक्ति के संयोग से आस्थावादी माहौल (भीड़) का होना देखा गया है। ऐसे भीड़ से कोई एक अथवा सम्पूर्ण भीड़ के द्वारा जीवन अपेक्षा, मानवापेक्षा फलीभूत होता हुआ इस सदी के अंतिम दशक तक देखने को नहीं मिला।