अध्यात्मवाद
by A Nagraj
व्यक्त हुआ है। इस दशक तक इस धरती पर कहीं भी अनुभवमूलक परंपरा स्थापित नहीं हो पायी है। उसके योग्य विश्व दृष्टिकोण ही उदय नहीं हुआ। अनुभवमूलक प्रणाली की आवश्यकता तब आवश्यक हो गया जब मानव जाति धरती का सर्वाधिक शोषण किया। जैसे वन खनिज अनानुपाती विधि से शोषण किया। जिसके प्रौद्योगिकी परिणामों में प्रदूषण की मात्रा बढ़ती गई। कुछ मेधावियों को इसकी विभीषिकाएं कल्पना में आने लगी तब अनुभवमूलक ज्ञान दर्शन आचरण की आवश्यकता निर्मित हुई। इसी आवश्यकता के आधार पर अनुसंधान सम्पन्न हुआ। इसमें मुख्य मुद्दा अनुभवों को संप्रेषित करना हुआ। इसका सिद्धान्त यही है मानव में, से, के लिये भाषा से कल्पना, कल्पना से चिन्तन, चिन्तन से अनुभव, अनुभव से प्रमाण विस्तार और स्पष्ट अभिव्यक्ति होना देखा गया। इससे स्पष्ट हो जाता है कि भाषा, कल्पना, चित्रण यह दृष्टा पद का आधार नहीं हो पाई। जबकि अभी तक जो भी अभिव्यक्तियाँ हुई वह इतने तक ही हुई। यह आशा, विचार, इच्छा बन्धन का प्रकारान्तर से किया गया प्रकाशन ही है। यह सब भ्रमित विधि होने के कारण जिसके गवाही के रूप में युद्ध ही प्रधान विकास का आधार मानने के फलस्वरूप भ्रम का साक्ष्य सुस्पष्ट हो जाता है। शांतिवादी कल्पनाएँ जितने भी हो पायी, व्यक्तिवादी होने के कारण परिवार, समाज और व्यवस्था का आधार नहीं हो पाया। भोगवादी परिकल्पना भी व्यक्तिवादी हुई। यह सर्वविदित है विरक्तिवाद भी एकान्तवाद स्वान्तः सुख रूप में है। इन सबका सार-संक्षेप संघर्ष ही पीढ़ी से पीढ़ी को हाथ लगी। इस दशक में सर्वाधिक लोग संघर्षरत भी हुए। ऐसे अनेकानेक संगठन पूरे धरती पर तैयार हो चुके हैं। कहीं भी राजगद्दी पर कोई बैठा है तो उसका विद्रोही संगठन भी रहा। यह सब इसी की गवाही में है कि हम सार्वभौम व्यवस्था, अखण्ड समाज विधि को पाये नहीं है पाने की इच्छा आंशिक रूप में बना ही रहा। तीसरा मानवापेछा और जीवनापेछा किसी परंपरा में सार्थक नहीं हो पायी इसी कारणवश अनुभवमूलक शिक्षा-संस्कार, व्यवस्था और संविधान को सुस्पष्ट करना एक नियति सहज आवश्यकता रही है।
भ्रमवश शरीर ही समझने वाला वस्तु है ऐसा कल्पना करते हुए शरीर रचना के आधार पर विकास और जागृति को केन्द्रित करने का कोशिश किया किन्तु मानव