अध्यात्मवाद
by A Nagraj
विश्व कल्याण में व्यक्ति का कल्याण समाया हुआ है और मानव के उद्धार का स्वरूप अभी तक इस धरती पर किसी परंपरागत विधि से अध्ययनगम्य नहीं हो पाया। यह सम्पूर्ण क्रियाकलाप आर्षेय ग्रंथ कथन और आस्था का संयोग से चक्कर काटते ही आया। आस्था का तात्पर्य है “न जानते हुए मान लेने से” है। इसमें और भी उल्लेखनीय तथ्य यही है कि ‘स्व’ का अध्ययन होना अभी भी प्रतीक्षित है। इस मुद्दे पर पहले बता चुके हैं कोई-कोई परंपरा, पावन ग्रन्थ केवल शरीर ही जीवन है ऐसा मानते हैं। कोई-कोई शरीर और जीव होना मानते हैं। कोई-कोई शरीर, जीव, जीव में आत्मा होना मानते हैं। ये सब ईश्वर तंत्र से अथवा ईश्वरेच्छा से निर्मित, वैभवित और प्रलय को प्राप्त होते हैं।
जबकि इस मुद्दे पर अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिन्तन विधि से सहअस्तित्व में ही विकासक्रम और विकास, जागृति क्रम, जागृति के रूप में देखा गया है जिसे पदार्थावस्था, प्राणावस्था, जीवावस्था, ज्ञानावस्था के रूप में होना स्पष्ट किया जा चुका है। इसी के साथ ज्ञानावस्था में भ्रमवश बन्धन और जागृतिवश मोक्ष होता है। जिसमें से बंधन को विस्तार से आशा बन्धन, विचार बन्धन और इच्छा बन्धन के रूप में विश्लेषित कर चुके हैं।
यह तीनों प्रकार का बन्धन शरीर को जीवन मान लेने से और इन्द्रिय सन्निकर्ष से ही सम्पूर्ण सुख का स्रोत मानने के परिणाम में भ्रम सिद्ध होना पाया गया। जबकि जीवन अपने जागृति को व्यक्त करने के लिये शरीर एक साधन है, इन्द्रिय सन्निकर्ष ही एक माध्यम है। मानव परंपरा ही जीवन जागृति प्रमाण का सूत्र और व्याख्या है। यही भ्रम और निर्भ्रम का, जागृति और अजागृति का निश्चित रेखाकरण सहज बिन्दु है। इन यथार्थों को शिक्षा गद्दी, राजगद्दी और धर्मगद्दी अपने में बीते हुए विधियों से आत्मसात करने में असमर्थ रहे हैं। दूसरे विधि से इनका धारक वाहक मेधावी इन मुद्दों पर अनुसंधान करने से वंचित रहे हैं। इसीलिये यह तथ्य मानव परंपरा में ओझिल रही है। इसे परंपरा में समाहित कराना ही इस “अनुभवात्मक अध्यात्मवाद” का उद्देश्य है।
जीवन में सतत् कार्यकारी तीन दृष्टियाँ यथा प्रिय, हित, लाभ बन्धन के रूप में पीड़ा का कारण हुआ इसे हर व्यक्ति अपने में परिशीलन कर सत्यापित कर सकता