अध्यात्मवाद
by A Nagraj
समाज अथवा व्यवस्था का भागीदार होना संभव नहीं होता। इस प्रकार से साधनारत समय में एवं साधना सफल होने के उपरान्त विचार शून्यता को ही ज्ञानी होने का एक मात्र उपाय प्रकारान्तर से सभी धर्म वाले बताते हैं। वह मानव उपयोगी होना देखने को नहीं मिला ।
इसी घटना के साथ जुड़ी हुई और घटना तैयार हुई - स्वर्ग के लिये अनुकूल कार्यकलापों को मानव कर सकता है। इसके लिये ईश्वरीय नियमों-कानूनों को बताया गया। हर जाति, हर वर्ण, हर आश्रम जो नियम-कानून, धर्म ग्रन्थों में लिखी हुई है उसको पालन करना ही स्वर्ग में जाने के लिये एक मात्र उपाय बताये हैं। ऐसे नियम कानूनों को पालन करना ही पुण्य कर्म बताया गया। ऐसे नियम कानून विभिन्न प्रकार से धर्म कहलाने वालों के पुस्तिका में विभिन्न प्रकार से सूत्रित, व्याख्यायित हुई। जो जिस जाति धर्म के नियम कानून रूपी (ईश्वरीय नियम कानून रूपी) कार्यकलापों को उन्हीं-उन्हीं को स्वर्ग मिलने का स्वीकृति हो पाती है। अन्य प्रकार के धर्म वालों को वह स्वर्ग मिल नहीं सकती है। ऐसा हर सामुदायिक धर्म वाले जो अनुसरण करते हैं और जो आर्षेय ग्रंथों का अनुमोदन करते हैं ये सब कहते भी हैं, मानते भी है। उल्लेखनीय घटना यही है विविध समुदाय, विभिन्न पवित्र ग्रन्थों के आधार पर मान्यताओं को सुदृढ़ किये रहते हैं। ऊपर कहे गये अस्मिता को भी बनाये रखते हैं। इसके बावजूद ऐसा कोई एक आचरण सार्वभौम होना प्रमाणित नहीं हो पाया, जिसको सभी धर्म वाले स्वीकार लिये हो। इसलिये आदिकाल से अभी तक परस्पर समुदायों में अपना-पराया का दीवाल, प्रत्येक परिवार की परस्परता में अपना-पराया का दीवाल, प्रत्येक व्यक्ति की परस्परता में अपना-पराया का दीवाल बना ही रहता है।
इसी के साथ-साथ उपासना, पूजा-पाठ और उसके तरीके के विभिन्नताएँ अपने-अपने श्रेष्ठता और अहमता के साथ पनपते आया। इस क्रम में भी मानव और समुदाय व्यक्तिवादी हैं, क्योंकि सभी उपासना, प्रार्थना, पूजा-पाठ व्यक्तिवादी होता ही है। समूहगत प्रार्थना-पूजा में भी हर व्यक्ति अपनी प्रमुखता और श्रेष्ठता के साथ ही प्रस्तुत होना पाया जाता है। प्रार्थना में अधिकतर ईश्वर की महिमा, विश्व कल्याण, स्वयं का उद्धार, शत्रुओं का नाश की कामना समाहित रहती है। जबकि